Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 27
________________ तरह से स्वयं समझना, संघ में कोई समस्या खडी हो तब शास्त्रोक्त नियमानुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का विवेक कर समस्या का सही समाधान करना। अन्य व्यक्ति को भी जिनमार्ग समझाना आदि। 2. प्रभावना - जिन्हें जिनशासन प्राप्त नहीं हुआ है, ऐसे व्यक्ति भी जैन धर्म से प्रभावित हों, ऐसी प्रवृत्ति करना प्रभावना कहलाती है। विमलाचल साधु साध्वी श्राविका 3. तीर्थ सेवा - संसार सागर से जो पार उतारे, वे तीर्थ कहलाते हैं। तीर्थ दो प्रकार के हैं - तीर्थंकर परमात्मा की कल्याणक भूमि, प्राचीन जिन मंदिर आदि द्रव्य तीर्थ हैं। इन तीर्थों की यात्रा करने से सम्यग्दर्शन निर्मल बनता है, स्थिर होता है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के आधारभूत साधु-साध्वी, श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध संघ अथवा गणधर आदि को भाव तीर्थ कहते है। इन दोनों तीर्थों की यात्रा, पूजा, विनय, सेवा आदि करना, उन पर आये संकट दूर करना उनका उत्कर्ष करना तीर्थ सेवा है। 4. स्थिरता - जिन शासन में शंका आदि के कारण किसी का मन जिनधर्म से चलित हो गया हो तो उसे सही समझा बुझाकर, जिन धर्म में पुन: स्थिर करना तथा अन्य दर्शन की ऋद्धि, समृद्धि, चमत्कार आदि देखकर स्वयं का मन चंचल हो गया हो तो उसे स्थिर करना। 5. भक्ति - साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ का विनय-वैय्यावच्च बहुमान आदि करना भक्ति है। रत्नत्रयी के धारक Jain Education International For Personale Use Only www.jainelibrary.org

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