Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 29
________________ 4. मिथ्यादृष्टि प्रशंसा - विपरीत दर्शन वाले मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा करना। | अन्य दर्शनीयों का 5. मिथ्यादृष्टि का गाढ परिचय - मिथ्यादृष्टियों परिचय-प्रशंसा के साथ में रहना। परस्पर वार्तालाप आदि का व्यवहार बढाकर उनका अति परिचय करना। सम्यग्दर्शन के आठ दर्शनाचार उत्तराध्ययन सूत्र में सम्यग्दर्शन की साधना के आठ अंगों का वर्णन किया गया है। 1. निश्शंकित, 2. नि:कांक्षित, 3. निर्विचिकित्सा, 4. अमूढ दृष्टि, 5. उपवृंहणा, 6. स्थिरीकरण, 7. वात्सल्य और 8. प्रभावना 1. निश्शंकित - जिन वचनों में किसी प्रकार की भी शंका नहीं होने देना। 2. निकांक्षित - अन्य दर्शनों के आडम्बर-वैभव आदि से आकर्षित होकर उन्हें स्वीकार करने की इच्छा न करना अथवा देव, गुरू व धर्म की आराधना के फल स्वरूप किसी भी प्रकार के भौतिक सांसारिक सुखों की इच्छा न करना। 3. निर्विचिकित्सा - निर्विचिकित्सा के दो अर्थ है - धर्म क्रिया के फल के प्रति सन्देह न करना निर्विचिकित्सा आचार है। मैं जो धर्म-क्रिया या साधना कर रहा हूँ, उसका फल मुझे मिलेगा या नहीं मेरी यह साधना व्यर्थ तो नहीं चली जायेंगी ऐसी आशंका रखना। अथवा तपस्वी, साधुसाध्वी के दुर्बल, जर्जर शरीर अथवा मलिन वेशभूषा देखकर घृणा करना निर्विचिकित्सा है। 4. अमूढ़ दृष्टि - अन्य दर्शनो के मंत्र तंत्र चमत्कार आदि बाह्य आडम्बर को देखकर आकर्षित नहीं होना और जैन धर्म के तत्वों को दीर्घदृष्टि व सूक्ष्मबुद्धि से सोचना इत्यादि अमूढदृष्टि 5. उपवृंहणा - गुणीजनों के गुणों की प्रशंसा करना, उन्हें बढावा देना। उनके प्रति प्रमोद भाव रखना। 6. स्थिरीकरण - सम्यक्त्व अथवा चारित्र से डिगती हुई आत्मा को धर्म में पुन: स्थिर करना। 7. वात्सल्य - धर्म का आचरण करनेवाले समान गुण वाले साथियों के प्रति नि:स्वार्थ स्नेह भाव रखना, जीव मात्र के प्रति करूणा व निजत्व की अनुभूति करना। 8. प्रभावना - वीतराग देव का धर्म अपने स्वयं के गुणों से ही प्रभावपूर्ण होता है । अपने AAAAA AAAAAA AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAD loundausselihusn saxmmmssxssexmarriori152RA

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