Book Title: Jain Dharm Darshan Part 03
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 17
________________ वस्तु से वस्तु का विनिमय होता था । उनका हिसाब रखना जरुरी था। कौनसी वस्तु का विनिमय किस मात्रा में होता है, जानना भी जरुरी था। इसके लिए कुछ लोगों को प्रशिक्षित किया गया। इस विनिमय प्रक्रिया को व्यापार तथा इसे करने वा वर्ग को व्यापारी (वैश्य) कहकर पुकारा गया। * कृषि कर्म शिक्षा :- राजा बनते ही ऋषभदेव ने खाद्य समस्या का समाधान किया। उन्होंने लोगों को एकत्रित किया और कहा - अब कल्पवृक्षों की क्षमता कम होने लगी है। समय के साथ उन्होंने फल देने बंद कर दिये हैं। अतः ऐसी स्थिति में श्रम करना होगा। खेती में अनाज बोना होगा। ऋषभदेव के इस आह्वान पर हजारों नवयुवक खडे होकर श्रम करने के लिए संकल्पबद्ध हो गए। ऋषभदेव ने उन्हें कृषि खेती कैसे करनी चाहिए इसका प्रशिक्षण दिया। कृषि के साथ अन्य सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के उपाय भी सिखाये । * कला प्रशिक्षण :- भगवान श्री ऋषभदेव सर्व कलाओं में कुशल थे। अतः लोगों को स्वावलंबी व कर्मशील बनाने के लिए विविध प्रकार की शिक्षा दी, कला का प्रशिक्षण दिया। उन्होंने सौ शिल्प और असि, मसि, कृषि रुप कर्मों का कार्य लोगों को सक्रिय ज्ञान कराया। इसके साथ ही ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को लेख, गणित, नाट्य, गीत, स्वरगत, शास्त्र विद्या आदि 72 कलाएं सिखाई । कनिष्ट पुत्र बाहुबलि को प्राणी की लक्षण विद्या का उपदेश दिया। इसके अतिरिक्त धनुर्वेद, अर्थशास्त्र, चिकित्सा, शास्त्र, क्रीडा - विधि आदि विद्याओं का प्रवर्तन कर लोगों को सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत बनाया। इसी प्रकार उन्होंने अपनी बडी पुत्री ब्राह्मी को अठारह लिपियों का ज्ञान करवाया और छोटी पुत्री सुन्दरी को अंकविद्या अर्थात् गणित का अध्ययन करवाया। इन विद्याओं का सर्वप्रथम शिक्षण ब्राह्मी और सुंदरी के रुप में नारी को प्राप्त हुआ। ब्राह्मी ने जिस लिपि का अध्ययन किया वह ब्राह्मी लिपि के नाम से जानी जाने लगी। आज भी विश्व में ब्राह्मी लिपि प्राचीनतम मानी जाती है। भारतवर्ष एवं आसपास की देवनागरी आदि प्रायः सभी लिपियाँ इसी में से निकली हुई हैं। इस प्रकार सम्राट श्री ऋषभदेव ने प्रजा के हित और अभ्युदय के लिए पुरुषों को बहोत्तर कलाएं, स्त्रियों को चौसठ कलाएं और सौ प्रकार के शिल्पों का परिज्ञान कराया। * वर्ण व्यवस्था का प्रारंभ :- भगवान ऋषभ देव से पूर्व भारतवर्ष में कोई वर्ण या जाति की व्यवस्था नहीं थी। भारतीय ग्रन्थों में उपलब्ध चार वर्णों में से तीन वर्णों की उत्पत्ति भगवान ऋषभदेव के समय हुई। जो लोग शारीरिक दृष्टि से शक्ति संपन्न थे उन्हें प्रजा की रक्षा के कार्य से नियुक्त किया गया और उन्हें पहचान के लिए क्षत्रिय की संज्ञा दी गई। जो लोग कृषि, पशुपालन एवं वस्तुओं का क्रय विक्रय वितरण आदि का कार्य करते, उन लोगों के वर्ग को वैश्य की संज्ञा दी गई। कृषि और मसि कर्म के अतिरिक्त अन्य कार्य करने वाले लोगों को शूद्र संज्ञा दी गई। उनके जिम्मे सेवा तथा सफाई का कार्य था। For Person ODEWA ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति सम्राट भरत के शासन काल में हुई । सम्राट भरत ने धर्म के सतत जागरण के लिए कुछ बुद्धिजीवी व्यक्तियों को चुना जो वक्तृत्व कला में निपुण थे। ब्रह्मचारी रहकर समय- समय पर राज्य सभा में तथा अन्य स्थानों में जाकर प्रवचन देना, धार्मिक प्रेरणा देना उनका काम था। ब्रह्मचर्य का पालन करने से या vate Use Only - 13 www.jainelibrary.org

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