Book Title: Jain Dharm Darshan Part 03
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 96
________________ कन्याभुमिहि कच्याभुमिहि TitutnaitiTIITH उत्कृष्ट १७०तीर्थकर उत्कृष्ट १७० तीर्थकर कम्मभूमिहिं :- कर्मभूमियों में। पढमसंघयणि:- प्रथम संहननवाले, वज्र ऋषभ नाराच संघयण वाले। संघयण हड्डियों की विशिष्ट रचना। उक्लोसय :- अधिक से अधिक। सत्तरिसय :- एक सौ सत्तर (170)। जिणवराण :- जिनेश्वरों की संख्या। विहरंत :- विचरण करते हुए विद्यमान। लभइ :- प्राप्त होती है। नवकोडिहिं:- नौ करोड। केवलीण :- केवलियों की, सामान्य केवलियों की। कोडिसहस्स नव :- नव हजार करोड। साहु गम्मइ :- साधु होते है, ज्ञानी होते हैं। संपइ:- वर्तमानकाल में। जिनवर :- तीर्थंकर। वीस:- बीस। मुणि:- मुनि। बिहं कोडिहिं :- दो करोड। वरनाणि:- केवलज्ञानी। समणह:- श्रमणों की संख्या - कोडि: सहस्स दुअ:-दो हजार करोड । थुणिज्जइ:- स्तवन किया जाता है। निच्च - नित्य। विहाणि :- प्रातः काल में। सत्तणवइ- सहस्सा :- सत्ताणवे हजार। लक्खा छप्पन्न :- छप्पन लाख। अट्ठ कोडिओ :- आठ करोड। चउ - सय :- चार सौ। छायासीया:- छयासी। तिअ-लोए:-तीन लोक में। चेइए - चैत्य जिन मंदिर में। वंदे :- वंदन करता हूँ। नव कोडि:- नौ करोड। सयं :- सौ। पणवीसंकोडी:- पच्चीस करोड। लक्खतेवन्ना:- त्रेपन लाख। अट्ठावीस सहस्सा :- अट्ठाइस हजार। अट्ठासीया पडिमा :- अट्ठासी प्रतिमाओं को। भावार्थ :- शत्रुजय पर्वत पर प्रतिष्ठित हे श्री ऋषभदेव प्रभो ! आपकी जय हो। श्री गिरनार पर्वत पर विराजमान हे नेमिनाथ भगवन ! आपकी जय हो। साचोर नगर के भूषणरुप हे श्री महावीर प्रभो ! आपकी जय हो। भरुच में रहे हुए हे मुनिसुव्रतस्वामी। आपकी जय हो। टिटोई गांव अथवा मथुरा में विराजित हे पार्श्वनाथ प्रभो ! आपकी जय हो। ये पांचों जिनेश्वर दुःखों तथा पापों का नाश करनेवाले हैं। पांचों महाविदेह में विद्यमान जो तीर्थंकर है एवं चार दिशाओं तथा चार विदिशाओं में अतीतकाल, अनागतकाल और वर्तमानकाल संबंधि जो कोई भी तीर्थंकर है उन सबको मैं वंदन करता हूँ। वे सब दुखों और पापों का नाश करनेवाले हैं। __ सब कर्मभूमियों में (जिन भूमियों मं असि, मसी, कृषि रुप कर्म होते हैं ऐसे पांच भरत, पांच ऐरावत, और पांच - महाविदेह क्षेत्र में जहां प्रत्येक में बत्तीस - बत्तीस विजय होने से कुल 160 विजय हैं, कुल मिलाकर 5 भरत, 5 ऐरावत तथा पांच महाविदेहों के 160 विजय = कुल 170 कर्म भूमियों में) प्रथम संघयण (वज्र - ऋषभ - नाराच - संहनन) वाले अधिक से अधिक 170 तीर्थंकर की संख्या पायी जाती है। सामान्य केवलियों की अधिक से अधिक संख्या नौ करोड (90000000) की होती है और सामान्य साधुओं की संख्या अधिक से अधिक नौ हजार करोड अर्थात् नब्बे अरब (90000000000) की होती है, वर्तमानकाल में सर्वसंख्या जघन्य है अर्थात् सीमंधरस्वामी आदि बीस तीर्थंकर (प्रत्येक महाविदेह के 8वें, 9वें, 24वें, 25वें विजय में एक - एक तीर्थंकर) पांचों महाविदेह क्षेत्रों में विचरते हैं। सामान्य कवेलज्ञानी मुनियों की संख्या दो करोड (20000000) तथा सामान्य साधुओं की संख्या दो हजार अर्थात् बीस अरब (20000000000) है। इन सबकी निरन्तर प्रातः काल में मैं स्तुति करता हूँ। daliticidicolateinteinition Sandialist 90

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