Book Title: Jain Dharm Darshan Part 03
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 112
________________ * कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य * भगवान महावीर के पश्चात् जैन परंपरा में अनेक प्रभावशाली विद्यासिद्ध लोकोपकारी महान आचार्य हुए जिनमें आचार्यश्री हेमचंद्रसूरि का नाम स्वर्ण अक्षरों में मंडित है। आचार्यश्री हेमचंद्रसूरि असाधारण विभूतियों से संपन्न महामानव थे। ये उत्कृष्ट श्रुत पुरुष थे। व्याकरण - कोष- न्याय - काव्य छन्दशास्त्र - योग-तर्क - इतिहास आदि विविध विषयों पर अधिकारिक साहित्य का निर्माण कर सरस्वती के भंडार को अक्षय श्रुत निधि से भरा था। वे ज्ञान के महासागर थे। साथ ही उन्होंने गुजरात के राजा सिद्धराज और कुमारपाल को जैनधर्मानुरागी बनाकर जिनशासन के गौरव में चार चांद लगाये। धार्मिक ., सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में नवचेतना जगाई। उनकी बहुमुखी विलक्षण प्रतिभा के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए गुर्जर नरेश श्री कुमारपाल ने उन्हें कलिकाल सर्वज्ञ के विरुद से अलंकृत किया। धंधूका नगर में चाचिंग नामक सेठ रहते थे। उनकी पाहिनी नामक पत्नी थी। वह गुणवान व शीलवती थी। जैन धर्म के प्रति उन्हें पूर्ण श्रद्धा थी। एक रात्रि को पाहिनी को स्वप्न आया। उसे दो दिव्य हाथ दिखे। दिव्य हाथों में दिव्य रत्न थे। यह चिंतामणि रत्न है, तू ग्रहण कर कोई बोला, पाहिनी ने रत्न ग्रहण किया। वह रत्न लेकर आचार्य देव श्री देवचंद्रसूरि के पास जाती है। गुरुदेव यह रत्न आप ग्रहण करें और रत्न गुरुदेव को अपर्ण कर देती हैं। उसकी आंखों में हर्ष के आंस उभर आते हैं। वप्न परा हो जाता है। वह जागती है। जागकर नवकार मंत्र का स्मरण करती है। वह सोचती हैं गुरुदेव श्री देवचंद्रसूरि नगर में ही है। उनको मिलकर स्वप्न की बात करूं। सुबह उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर वह गुरुदेव के पास गई और स्वप्न की बात उनको कही। गुरुदेव ने कहा 'पाहिनी, तुझे खूब अच्छा स्वप्न आया है। तुझे श्रेष्ठ रत्न जैसा पुत्र होगा और वह पुत्र तू मुझे देगी। यह तेरा पत्र जिनशासन का महान आचार्य बनेगा और शासन को शोभायमान करेगा। वि.सं. 1145 की कार्तिक पूर्णिमा को पाहिनी ने पुत्र को जन्म दिया। पुत्र का नाम रखा गया चांगदेव। उस समय आकाशवाणी हुई 'पाहिणी और चाचिंग का यह पुत्र तत्त्व का ज्ञाता बनेगा और जिन धर्म का प्रसारक बनेगा। पांच वर्ष का चांगदेव पाहिनी के साथ एक बार जिनमंदिर में गया। आचार्य श्री देवचंद्रसूरिजी वहां दर्शनार्थ वहां पधारे थे। उनके शिष्य ने आचार्यदेव को बैठने के लिए आसन बिछाया था जिसपर चांगदेव बैठ गया। यह देखते ही आचार्य हंस पडे। चांगदेव भी हसने लगा। आचार्यश्री ने पाहिनी को कहा श्राविका तुझे याद तो है न तेरा स्वप्न, रत्न तुझे मुझको सौंपना होगा।" "तेरा पुत्र मेरी गद्दी संभालेगा और जिनशासन का महान प्रभावक आचार्य बनेगा। उसका जन्म घर में रहने के लिए नहीं हुआ। वह तो जिनशासन के गगन में चमकने के लिए जन्मा हैं । इसलिए उस पर का मोह छोडकर मुझको सौंप दे। श्री देवचंद्रसूरि संघ के अग्रगणियों को लेकर पाहिणी के घर पधारे। पाहिने ने अपना महाभाग्य समझकर आनंदपूर्वक चांगदेव को गुरुचरणों में समर्पित कर दिया। comdustriantartosaaditya www.janelayorg 107

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