Book Title: Jain Dharm Darshan Part 03
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 113
________________ गुरुदेव श्री देवचन्द्रसूरिजी चांगदेव को पढाने लगे। उसका विनय और बुद्धि देखकर गुरुदेव को भरोसा हो गया कि यह लडका जल्दी विद्वान बन जायेगा। सब शास्त्रों का अभ्यास कर लेगा। एक दिन गुरुदेव ने गुजरात के महामंत्री उदयन को अपने पास बुलाकर चांगदेव के बारें में बात की। उनको जैन धर्म पर बडी श्रद्धा थी। उन्होंने चांगदेव की दीक्षा महोत्सव पूर्वक माघसुदि चौदस के दिन बडे उत्सवपूर्वक करवाई और उसका नाम सोमचंद्र मुनि रखा गया। आचार्यदेव श्री देवचन्द्रसूरीश्वरजी स्वयं सोमचंद्रमुनि को अभ्यास करवाते थे। साधुजीवन के आचार - विचार सिखाते थे। ___ एक बार अध्ययन करते समय सोमचन्द्र मुनि ने सरस्वती माता की उपासना करने की इच्छा अपने गुरु को बताई। गुरु ने उन्हें कश्मीर में स्थित सरस्वती देवी की शक्तिपीठ में जाकर आराधना करके अपने मनोरथ को सफल करने को कहा। गुरुदेव का आशीर्वाद पाकर अन्य एक मुनि के साथ सोमचन्द्र मुनि ने कश्मीर की ओर प्रयाण किया। विहार करते हुए वे खंभात नगर के बाहर आये। वहां नेमिनाथ भगवान का संदर जिनालय था। भगवान की नयनरम्य मूर्ति देखकर सोमचन्द्र मुनि ध्यान में बैठ गये और वातावरण शांत होने से रात्रि को उसी मंदिर में सरस्वती देवी की आराधना प्रारंभ करने लगे। पद्मासन लगाकर बैठ गये और देवी सरस्वती के ध्यान में लीन हो गये। इस प्रकार रात्री के छः घण्टे बीत गये। मुनिराज स्थिर मन से जाप - ध्यान कर रहे थे और देवी सरस्वती साक्षात प्रकट हुई। देवी ने मुनि पर स्नेह बरसाया। कृपा का प्रपात बहाया। देवी ने कहा 'वत्स् ! अब मुझे प्रसन्न करने के लिए तुझे काश्मीर जाने की जरुरत नहीं है । तेरी भक्ति और ध्यान से मैं देवी सरस्वती तुझ पर प्रसन्न हुई हुँ। मेरे प्रसाद से तू सिद्ध सारस्वत् बनेगा। तब से सोमचन्द्रमुनि धर्मग्रंथों का सजन करने लगे और दिन व रात एक ही कार्य में जुट गए। एक बार देवचन्द्रसूरिजी शिष्य परिवार के साथ नागपुर पहुंचे वहां पर धनद नामक एक धनवान सेठ रहता था। कर्मसंयोग से उसके व्यापार में बहत हानि हो गई। जमीन में स्वर्ण से भरे चरु विपत्ति के समय काम में लेने की इच्छा से गाढे थे। उनको जब निकला तो सोने की जगह कोयले ही हाथ लगे। जब सोमचन्द्रसूरि उनके घर गोचरी लेने गए तो हवेली में सोने से भरे चरु को देखा और फिर विचार करने लगे ........ee rorpersonaruwaose only www.jainelibrary.org 108

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