Book Title: Jain Dharm Darshan Part 03
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 47
________________ *. इत्वरिक सामायिक चारित्र :- इत्वर अर्थात् अल्पकालीन। अल्प काल के लिए जो सामायिक चारित्र दिया - लिया जाता है। जिसमें भविष्य में दुबारा करने का व्यपदेश हो, उसे इत्वरिक सामायिक चारित्र कहते हैं। श्रावक के 48 मिनट (2 घडी) तथा प्रथम व अंतिम तीर्थंकर के शासन में छोटी दीक्षा से बडी दीक्षा तक का चारित्र इत्वरिक है। यह जघन्य 7 दिन, मध्यम 4 मास तथा उत्कृष्ट 6 मास का होता है। यह चारित्र केवल भरत तथा ऐरावत क्षेत्र के प्रथम व चरम तीर्थंकरों के शासन में ही होता है। *. यावत्कथिक सामायिक चारित्र :यावज्जीवन की सामायिक यावत्कथिक सामायिक चारित्र कहलाती है। प्रथम व अंतिम तीर्थंकर को छोडकर बीच के 22 तीर्थंकरों के साधुओं एवं महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के साधुओं के दीक्षा के प्रारंभ से जीवन के अंतिम समय तक का चारित्र यावत्कथिक सामायिक कहलाता है। 2. छेदोपस्थापनीय चारित्र :- पूर्व चारित्र पर्याय का छेद करके पुनः महाव्रतों का आरोपण जिसमें किया जाता है, उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं। छेदोपस्थापनीय चारित्र दो प्रकार का हैं। * निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र :- छोटी दीक्षावाले मुनि को एवं एक तीर्थंकर के शासन से दूसरे तीर्थंकर के शासन में जानेवाले साधुओं में जो पुणः व्रतारोपण किया जाता है, उसे निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं। ___*. सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र :- मूल गुणों का घात करनेवाले साधु के पूर्व पर्याय का छेद कर जो पुनः महाव्रतों का आरोपण कराया जाता है, उसे सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं। 3. परिहार विशुद्धि चारित्र :- परिहार अर्थात् त्याग या तपश्चर्या विशेष | जिस चारित्र में तप विशेष से कर्म निर्जरा रुप शुद्धि होती है, उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं। तीर्थंकर, केवली, गणधरादि अथवा जिन्होंने पूर्व में परिहार विशुद्ध चारित्र अंगीकार किया हो, उनके पास यह चारित्र स्वीकार किया जाता है। इसकी आराधना 9 साधु मिलकर करते हैं। इसकी अवधि 18 महिने की होती है। प्रथम 6 मास में 4 साधु तपस्या (ऋतु के अनुसार उपवास से लेकर पंचौला तक की तपश्चर्या) करते हैं, चार साधु उनकी सेवा करते हैं और एक वाचनाचार्य (गुरुस्थानीय) रहता है। दूसरे 6 महीने में तपस्या करने वाले सेवा और सेवा करनेवाले तप करते हैं, वाचनाचार्य www.jainelibrary.org. 1431

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