Book Title: Jain Dharm Darshan Part 03
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 43
________________ स्वर्ग-सुथ आत्म-बोध भगवान ऋषभदेव श्रद्धा भगवान ऋषभदेव के 98 पुत्रों ने प्रभु की प्रेरणा से इस भावना का चिंतन किया। भगवान ने उन्हें कहा - सबुज्झह, किं न बुज्झह संबोहि खलु पेच्च दुल्लहा - समझो क्यों नहीं समझते हो ? बोधि बीज की प्राप्ति होना अत्यंत बोधिदुर्लभ महापा दुर्लभ है। भौतिक राज्य तो अनंत बार प्राप्त हो चुका है परंतु बोधि - बीच की प्राप्ति पुनः पुनः नहीं होती। अतएव तुम सम्यक्त्व और चारित्र प्राप्त करके मोक्ष का अविचल राज्य प्राप्त करो। भगवान की वाणी से प्रतिबोध पाकर 98 पुत्रों ने संयम ग्रहण करके मोक्ष का अक्षय साम्राज्य प्राप्त किया। 12. धर्म भावना :- जिस भावना में धर्म और तत्व का चिंतन किया जाता है भगवान ऋषभदेव ने अपने अट्ठानवें वह भावना धर्म भावना हैं। संसार में प्रत्येक वस्तु की प्राप्ति सुलभ है परंतु पुत्रों को जो उपदेश दियासंबज्रह ! समझो! बोधिदर्लभ है। धर्म के साधक - स्थापक - उपदेशक अरिहंत प्रभु की प्राप्ति महादुलर्भ है। इसमें मनुष्य यह चिंतन करता है कि यह मेरा अहोभाग्य है कि मुझे यह धर्म मिला है, जो प्राणी मात्र का कल्याण करने में समर्थ, सक्षम तथा सर्वगुण संपन्न है क्योंकि यह धर्म तीर्थंकरों के द्वारा बताया गया हैं। जब मनुष्य पर विपत्ति, रोग, शोक, भय की आंधियां उमड रही हों तब शांति, धैर्य, ममत्व द्वारा आत्म - स्वभाव में स्थिर रखनेवाला एक मात्र धर्म है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी धर्म की शरण को ही उत्तम शरण कहते हुए कहा है कि संसार में धर्म ही शरण है। जन्म - जरा - मृत्यु के प्रवाह के वेग में डुबते हुए प्राणियों के लिए धर्मद्वीप ही उत्तम स्थान और शरण रुप है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई रक्षक नहीं है। कहा जाता है : चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी, जग में न हमारा कोई था, हम भी न रहे जग के साथी।। दीर्घकाल में धर्म ही रक्षण करने वाला है अतः अब धर्म ही मेरा स्थायी साथी है, वास्तव में इस जग . में हमारा कोई नहीं था, अब हम भी जग के साथी नहीं है। अतः मनुष्य जन्म तभी सार्थक है जब इस धर्म का सतत चिंतन व मनन कर तदनुरुप आचरण में उतारा जाए। यह भावना धर्मरुचि अनगार ने भायी थी। नागश्री ब्राह्मणी ने धर्मरुचि अनगार को कडवे तुम्बे का शाक बहराया था। वह लेकर जब वे गुरु के पास आये और उन्हें वह आहार बताया तो गुरु ने इसे विषैला जानकर निरवध भूमि में परठाने की आज्ञा दी। धर्मरुचि अनगार उस शाक की एक बूंद पृथ्वी पर डाली। उसी समय अनेक चिंटियां वहां आ गई और शाक खाकर मर गई। मुनि से यह नहीं देखा गया। उन्होंने अपने पेट को ही सर्वोत्तम निवध जगह मानकर यह आहार कर लिया। उससे सारे शरीर में वेदना उत्पन्न हो गई। मुनिराज दया धर्म में रहकर जीवरक्षा के लिए उस वेदना को समभाव से सहते . रहे। आयुपूर्ण कर वे सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए। अगले भव में कर्मों का क्षय करके मोक्ष में जायेंगे। शास्त्र RRRRRRRRRRRRRRRRRRRROR Jain Education International For Personalizovae Use Only www.jainelibrary.org

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