Book Title: Jain Dharm Darshan Part 03
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 42
________________ की हत्या कर दी थी, परंतु ये तो मात्र मुझे मार पीट ही कर रहे हैं, इससे मेरा कुछ भी नहीं बिगडता बल्कि ये मुझे कर्म - निर्जरा का सुंदर अवसर देकर मेरी सहायता कर रहे हैं। उन्होंने छह महीनों में ही समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लिया। - 10. लोक भावना :- जिस भावना में लोक के यर्थाथ स्वरुप, रचना, आकृति आदि पर चिंतन किया जाता है, वह लोक भावना है। इसमें उर्ध्व, तिर्यक और अधोलोक की स्थिति एवं उनमें रहे हुए सर्व पदार्थों के स्व- पर उपयोग पूर्वक विचार करना होता है। उर्ध्वलोक में देवविमान तिर्यंकलोक में असंख्यात द्वीप तथा समुद्र और अधोलोक में सात नरक भूमियाँ है । लोक अनादि, अनंत व षड्द्रव्यों का समूह है। इन द्रव्यों के स्वरुप तथा परस्पर संबंधों के बारे में चिंतन मनन करना, ऐसे चिंतन से लोक के शाश्वत और अशाश्वत होने तथा यह लोक किस पर टिका है, आदि से संबंधित मिथ्या धारणाएं नष्ट होती है । हम छोड चले यह लोक तभी लोकान्त विराजे क्षण में जा निज लोक हमारा वासा हो, शोकान्त बने फिर हमको क्या अर्थातः- सभी कर्मों का नाश होने पर जीव इस दुःखमय लोक को छोडकर लोक के अंत में स्थित हो जाता है जहां निज आत्मा में ही उसका वास होने से दुःखों का अन्त हो जाता है। गंगा नदी के तट पर बाल - तप करते हुए शिवराज ऋषि को विभंगज्ञान उत्पन्न हो गया था जिससे वे सात द्वीप और सात समुद्र पर्यन्त देख सकते थे। अपने इस ज्ञान को परिपूर्ण समझकर वे प्ररूपणा करने लगे, लोक में सात द्वीप और सात समुद्र ही है इसके आगे कुछ नहीं है। एक दिन उन्होंने भगवान महावीर स्वामी की वाणी द्वारा यह जाना कि स्वयंभूरमण समुद्र तक असंख्य द्वीप और समुद्र है उस दिन शिवराज ऋषि के मन में शंका उत्पन्न हुई और वे चिंतन की गहराई में डुब गए। फलतः तत्काल उनका विभंगज्ञान अवधिज्ञान में परिणत हो गया। भगवान महावीर के पास दीक्षा अंगीकार कर ली। लोक में द्वीप और समुद्र असंख्यात है, भगवान की इस प्ररूपणा पर उनको दृढ श्रद्धा और विश्वास हो गया, फिर बार बार अनुचिंतन और मनन से उन्हें केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त हो गया। 11. बोधिदुर्लभ भावना :- • चौरासी लाख योनियों और चार गतियों मं भ्रमणशील मनुष्यों को उत्तम कुल प्राप्त होना और उसमें भी विशुद्ध बोध (आत्म बोध) सम्यक्त्व मिलना अत्यंत दुर्लभ है। जब ऐसी स्थित प्राप्त हुई तो उस मार्ग की ओर क्यो न हम अग्रसर होये ? जब यह चिंतन होता है तब वह बोधि दुलर्भ भावना कहलाती है। संसार में मनुष्य पर्याय ही एक ऐसी पर्याय है जिसमें धर्म को धारण करते हुए सम्यक् संयम, तपादि का आचरण कर कर्मबंध से मुक्त हुआ जा सकता है। यानि मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभु, दुर्नयतम सत्वर टल जावे। बस ज्ञाता दुष्टा रह जाऊँ, मद, मत्सर मोह विनश जावे ।। अर्थातः- सत्य बोध को पाना अति दुर्लभ है। इन भावनाओं के चिंतन से मुझे सत्य बोध की प्राप्ति हो, दुर्नय अर्थात मिथ्या मान्यता का नाश हो। अहंकार मोह आदि भाव विनिष्ट हो और ज्ञाता दृष्टा साक्षी भाव प्राप्त करुं । 38

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