Book Title: Jain Dharm Darshan Part 03
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 33
________________ बार ग्रहण किया है और छोडा है इसलिए लोभजनित महादोषों का विचार करके इस पर विजय प्राप्त करनी चाहिए तभी संवर निर्जरा धर्म की आराधना हो सकती है। 5. उत्तम सत्य :- हित - मित - प्रिय वचन बोलना। सत्य में भाव, भाषा और काया तीनों की सरलता अपेक्षित होती है। समवायांग सूत्र में साधु के मूल गुणों में भाव सच्च, करण सच्च, योग सच्च अर्थात् भावसत्य, करण सत्य और योग सत्य बताये गये है। * भाव सत्य :- भावों में, परिणामों में सदा सत्य का भाव रहे। * करण सत्य :- करणीय कर्तव्यों को सम्यक् प्रकार से करना। * योग सत्य :- मन वचन काया की सत्यता। व्यवहारिक दृष्टि से सत्य - धर्म, वाणी, मन और शरीर के द्वारा अभिव्यक्त हो सकता है। इस दृष्टि से सत्य को धर्म कहा गया है। सत्य धर्म के साथ उत्तम विशेषण मिथ्यात्व का अभाव और सम्यग्दर्शन के अस्तित्व का सूचक हैं। अतः जो जैसा है उसे वैसा ही मानना जानना और उसी रुप में राग - द्वेष रहित होकर वीतराग भाव में परिणत होना सत्य - धर्म है। 6. उत्तम संयम :- मन, वचन और काया का नियंत्रण करना अर्थात् इनकी प्रवृत्ति में यतना करना संयम है। संयम का दूसरा अर्थ है - सं अर्थात् सम्यक् प्रकार से, यम - यानी नियमों का पालन करना। हिंसादी अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर पांच महाव्रत या अणुव्रतों का पालन करना संयम धर्म है। मुनि के सत्रह प्रकार के संयम बताये गये है। 1 - 5 :- पांच महाव्रत 6-10 :- पांच इन्द्रिय निग्रह 11 - 14 :- चार कषाय जय 14 - 17 :- तीन दंड की निवृत्ति (मन, वचन, काया के अशुभ व्यापार) संयम के साथ जो उत्तम शब्द है वह सम्यग्दर्शन के अस्तित्व का सूचक है क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना संयम की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि या फल - प्राप्ति संभव नहीं है। केवल बाह्य - प्रवृत्ति का त्याग करना संयम नहीं हैं | साधक संयम से युक्त तभी होता है जब उसके जीवन में इन्द्रियों के विकारों का एवं राग - द्वेष का मुण्डन होता है। अपनी नजर को पर - पदार्थों से समेटकर आत्म - सन्मुख करना यानी अपने में सीमित करना उत्तम संयम कहा जाता है। 7. उत्तम तप :- तप का सामान्य अर्थ किया गया है, “अष्टकर्म तपनात् तपः" अर्थात् आठ कर्मों को तपाकर आत्म शुद्धि करना तप है। उपसर्गों को समभावपूर्वक सहने में तथा धर्म - पालन करने में तप शरीर और मन को सक्षम बनाता है। देह और आत्म का भेद विज्ञान जानना ही सम्यग् तप है। सम्यग् दर्शन के अभाव में करोडो वर्षों तक किया गया उग्र तप भी निरर्थक है। इसलिए जैनागमों में कहा है - इस जन्म के लिए या पर - जन्म के लिए या कीर्ति की कामना से तप नहीं करना चाहिए। तत्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वाति ने कहा है “इच्छानिरोधस्तपः" इच्छाओं का निरोध करना तप है। केवल शरीर को तपाना तप नहीं है वह तो ताप है। मन की आशा और तृष्णा को रोकना तप है। तप बारह प्रकार के है उनका विस्तृत वर्णन निर्जरा तत्त्व में किया जाएगा। Binafteriorat seeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee For persoal Favale Use Only www.jainelibrary.org

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