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जैनधर्म राजगृहीको पंचशैलपुर या पंचपहाड़ी भी कहते हैं) रमणीक, नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त और देव-दानवसे वन्दित विपुलनामक पर्वतपर महावीरने भव्यजीवोंको उपदेश दिया। _ 'वर्पके' 'प्रथम मास अर्थात् श्रावणमासमें, प्रथम पक्ष अर्थात् कृष्णपक्ष में, प्रतिपदाके दिन, प्रातःकालके समय, अभिजित नक्षत्रके उदय रहते हुए धर्मतीर्थकी उत्पत्ति हुई।'
'इस प्रकार जिनश्रेष्ठ महावीरने लगभग ४२ वर्षकी महावीरको केवलज्ञानकी प्राप्ति दिनके चौथे पहरमें हुई थी। उन्होंने जब यह देखा कि उस समय मध्यमा नगरी (वर्तमान पावापुरी) में सोमिलार्य ब्राह्मणके यहाँ यज्ञविषयक एक बड़ा भारी धार्मिक प्रकरण चल रहा है, जिसमें देश देशान्तरोंके बड़े-बड़े विद्वान् आमंत्रित होकर आये हुए हैं तो उन्हें यह प्रसंग अपूर्व लाभका जान पड़ा। और उन्होंने यह सोचकर कि यज्ञमें आये हुए ब्राह्मण प्रतिबोधको प्राप्त होंगे और मेरे धर्मतीर्थके आधार स्तम्भ बनेंगे, सन्ध्या समय ही विहार कर दिया और वे रातोंरात १२ योजन चलकर मध्यमाके महासेननामक उद्यानमें पहुँचे, जहाँ प्रातः कालसे ही समवसरणकी रचना हो गई। इस तरह वैसाख सुदी ११ को दूसरा समवसरण रचा गया उसमें महावीर भगवानने एक पहर तक बिना किसी गणधरकी उपस्थिति के ही धर्मोपदेश दिया। इसको खबर पाकर इन्द्रभूति आदि अपने शिष्योंके साथ समवसरणमें पहुँचे और शंका समाधान करके शिष्य बन गये । वादको वीरप्रभुने उन्हें गणधर पदपर नियुक्त कर दिया। इस द्वितीय समवसरणके बाद महावीरने राजगहकी ओर प्रस्थान किया, जहाँ पहुँचते ही उनका तृतीय समवसरण रचा गया और उन्होंने वर्षाकाल वहीं बिताया।'
-श्रमण भगवान महावीर, पृ० ४८-७३ । १ 'वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्हि सावर्ण बहुले । पाडिवदपुव्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्हि ।'
-धव० १ खं०, पृ० ६३ । २ णिस्संसयकरो वीरो महावीरो जिणुत्तमो। रागदोसभयादीदो धम्मतित्थस्स कारओ ॥'
-ज० धव० १ खं०, पृ० ७३ ।