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जैनधर्म धर्मकी दूत अभ्युन्नति, रामानुज तथा कुछ शैव नेताओंका व्यवस्थिन और क्रमबद्ध विरोध, और लिंगायतोके भयानक आक्रमणने मैसूर प्रदेशमें जैनधर्मका पतन कर दिया। किन्तु भूल कर भी यह कल्पना नहीं करनी चाहिए कि वहाँसे जनधर्मकी जड़ ही उखड़ गई। किन्तु वैष्णव तथा अन्य वैदिक सम्प्रदायोंके क्रमिक अभ्युत्थानके कारण उसका चैतन्य जाता रहा । यों तो जैनधर्मके अनुयायियोंकी तब भी अच्छी संख्या थी किन्तु फिर वे कोई राजनैतिक प्रभाव नहीं प्राप्त कर सके। बादके मैसूर राजाओंने जैनोंको कोई कष्ट नहीं दिया। इतना ही नहीं, किन्तु उनकी सहायता भी की। मुस्लिम शासक हैदर नायक तक ने भी जैन मन्दिरोंको गाँव प्रदान किये थे यद्यपि उसने श्रवणवेलगोला तथा अन्य प्रदेशोंके महोत्सव बन्द कर दिये थे।
३. राष्ट्रकूट वंश राष्ट्रकूट राजा अपने समयके बड़े प्रतापी राजा थे। इनके आश्रयसे जैनधर्मका अच्छा अभ्युत्थान हुआ। इनकी राजधानी पहले नासिकके पास में थी। पीछे मान्यखेटको इन्होंने अपनी राजधानी बनाया । इस वंशके जैनधर्मी राजाओंमें अमोघवर्ष प्रथमका नाम उल्लेखनीय है। यह राजा दिगम्बर जैनधर्मका बड़ा प्रेमी था । अपनी अन्तिम अवस्थामें इसने राजपाट छोड़कर जिन दीक्षा ले ली थी। इनके गुरु प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनसेन थे। जिनसेनके शिष्य गुणभद्रने अपने उत्तरपुराणमें लिखा है कि अमोघवर्ष अपने गुरु जिनसेनके चरणकमलों की वन्दना करके अपनेको पवित्र हुआ मानता था। इसने जैन मन्दिरोंको दान दिया, तथा इसके समयमें जैन साहित्यकी भी खूब उन्नति हुई । दिगम्बर जैन सिद्धान्त अन्थोंकी धवला और जयधवला नामको टीकाओंका नामकरण इसीके धवल और अतिशय धवल नामके ऊपर हुआ समझा जाता है। शाकटायन वैया