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सिद्धान्त
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अज्ञान या रागद्वेष । इन दोनोंके नष्ट हो जानेसे 'जिन' सत्यवादी होते हैं । और उनकी सत्यवादिताका प्रबल प्रमाण है, उनके द्वारा कहा गया स्याद्वाद सिद्धान्त, जो वस्तुका पूर्ण या अपूर्ण किन्तु सत्यदर्शन करनेवाले सभी व्यक्तियोंके साथ न्याय करनेका मार्ग बतलाता है ।
प्रत्येक धर्मके दो अंग होते हैं विचार और आचार | जैनधर्मके विचारोंका मूल है स्याद्वाद और आचारका मूल है अहिंसा, न किसीके विचारोंके साथ अन्याय हो और न किसी प्राणी जीवनके साथ खिलवाड़ हो । सब सबके विचारोंको समझें और सबके जीवनोंकी रक्षा करें। यही उन जिनोंके उपदेशका मूल है। इससे उन्हें हितोपदेशी कहा जाता है । वे किसी व्यक्तिविशेष, वर्गविशेष या सम्प्रदायविशेषके हितकी दृष्टिसे उपदेश नहीं देते। वे तो प्राणिमात्रके हितकी दृष्टिसे उपदेश देते हैं। वे केवल मनुष्योंके ही हितकी बात नहीं बतलाते, किन्तु जंगम और स्थावर सभी प्राणियोंके हितकी बात बतलाते हैं । उनका मूलमंत्र ही यह है - ' मा हिंस्यात् सर्वभूतानि ' -- किसी भी प्राणीकी हिंसा मत करो।' न वे पशुओंको बाध्य बतलाते हैं और न किसी वर्गविशेषको अवध्य । उनकी वीतराग दृष्टिमें सब बराबर हैं । न वे ब्राह्मणकी पूजा करनेका उपदेश देते हैं और न चाण्डालसे घृणा करनेका । ऐसे वे वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी 'जिन' होते हैं। और उनके द्वारा जो उपदेश दिया जाता है वही जैनधर्म कहलाता है ।
अन्य धर्मोने भी सर्वज्ञाताको हो अपने अपने धर्मका प्रवर्तक माना हैं, क्योंकि जो अल्पज्ञ है, अज्ञानी है उससे सार्गत्रिक और सार्वदेशिक सत्य उपदेश मिलनेकी आशा नहीं की जा सकती । किन्तु उन्होंने ईश्वर खुदा या गॉडको सर्वज्ञ मानकर उसीको अपने २ धर्मका प्रवर्तक माना है । उनमें भी जो ईश्वरको नहीं मानते, उन्होंने वेदको अपने धर्मका मूल माना है, किन्तु वे वेदको किसी पुरुषके द्वारा रचा गया नहीं