Book Title: Jain Dharm
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 391
________________ विविध ३६ε धर्मकी बनावटी दशाको भाँपा । इनमेंसे प्रथम दोने आत्माकी नैतिक आवश्यकताओंपर जोर देते हुए नव निर्माणका प्रयत्न किया । किन्तु उनका यह प्रयत्न क्रान्तिकारी ढंगपर था । एक ओर तो उन्होंने उपनिषदोंके ब्रह्मवाद ( ethical universalism ) को पूर्ण करनेका प्रयत्न किया दूसरी और उन्होंने सोचा कि हमें ब्राह्मणोंके प्रभुत्वसे यानी याज्ञिक क्रियाकाण्ड और प्रचलित धर्मसे पूरी तरह पृथक हो जाना चाहिये । भगवद् गीता और बादके उपनिषदोंने अतीतका हिसाब बैठानेका और पहलेसे भी अधिक कट्टरतासे तर्क विरुद्ध सिद्धान्तोंके सम्मिश्रण करनेका प्रयत्न किया। इस प्रकार उपनिषद्कालके पश्चात् प्रचलित धर्मके इन उग्रपन्थी और स्थिति पालक विरोधियोंके केन्द्र भारतके विभिन्न भागों में स्थापित हुए- पूर्व में बौद्ध और जैन - धर्मने पैर जमाया और वैदिक धर्मके प्राचीनगढ़ पश्चिममें भगवद्गीताने ।” उक्त चित्रण में जहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्मके उत्थानकी बात आती है वहाँ हम सर राधाकृष्णन्को भी उसी पुरानी बातको दुहराते हुए पाते हैं कि जैनधर्मने उपनिषद्की शिक्षाओंको माना । किन्तु वैदिकधर्म और उपनिषद् के सिद्धान्तोंके मिश्रणको तर्कविरुद्ध बतलाकर भी और यह मानकर भी कि पार्श्वनाथ जैनधर्म के तीर्थङ्कर थे जिनका निर्वाण ७७६ ई० पू० में हुआ था तथा जैनधर्म उससे पहले भी मौजूद था, वे उपनिषद् के उन सिद्धान्तोंको जो जैनधर्मसे मेल खाते हैं, किन्तु वैदिकधर्मसे मेल नहीं खाते, जैनधर्मके सिद्धान्त माननेके लिये शायद तैयार नहीं हैं। किन्तु उन्होंने ही वैदिककालका जो खाका खींचा है उससे तो यही प्रमाणित होता है कि जब वैदिक क्रियाकाण्डका विरोध हुआ और जनताकी रुचि उससे हटने लगी तो वैदिकोंने अपनी स्थिति बनाये रखनेके लिए अपने विरोधी धर्मोकी - जिनमें जैनधर्म प्रमुख था - आध्यात्मिक शिक्षाओंके आधार पर उपनिषदोंकी रचना की । किन्तु उपनिषद भी २४

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