Book Title: Jain Dharm
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 390
________________ ३६८ जैनधर्म इस कालका वर्णन करते हुए सर राधाकृष्णन् लिखते हैं " वह ' समय आध्यात्मिक शुष्कताका था, जिसमें सत्य परम्पराओंसे बाँध दिया गया था । मनुष्यका दिमाग नियि क्रियाकाण्डकी परिधि में ही घूमा करता था । समस्त वाताव‍ विधि विधानोंसे रुँधा हुआ था। कुछ मंत्रोंका उच्चारण वि बिना या कुछ विधि विधानोंका अनुष्ठान किये बिना कोई जाग सकता था, न उठ सकता था, न स्नान कर सकता था, बाल बनवा सकता था, न मुँह धो सकता था और न कुछ र सकता था। यह वह समय था जब एक क्षुद्र और निष्फ धर्मने कोरे मूढ़ विश्वासों और सारहीन वस्तुओंके द्वा अपना कोष भर लिया था । किन्तु एक शुष्क और हृदयही दर्शन, जिसके पीछे अहंकार और अत्युक्तियोंसे पूर्ण एक शुष और स्वमताभिमानी धर्म हो, विचारशील पुरुषोंको कभी भ सन्तुष्ट नहीं कर सकता और न जनताको ही अधिक समय त सन्तुष्ट रख सकता है। इसके बाद एक ऐसा समय आया ज‍ इस विद्रोहको और भी अच्छे ढंगसे सफल बनानेका प्रयत किया गया। उपनिषदोंका ब्रह्मवाद और वेदोंका बहुदेवताबाद उपनिषदोंका आध्यात्मिक जीवन और वेदोंका याज्ञिक क्रिया काण्ड, उपनिषदोंका मोक्ष और संसार तथा वेदोंका स्वर्ग और नरक, यह तर्कविरुद्ध संयोग अधिक दिनोंतक नहीं चल सकत था अतः पुनर्निर्माणकी सख्त जरूरत थी । समय एक ऐसे धर्मको प्रतीक्षा कर रहा था जो गम्भीर और अधिक आध्या त्मिक हो तथा मनुष्योंके साधारण जीवनमें उतर सके या लाया जा सके । धर्मके सिद्धान्तोंका उचित सम्मिश्रण करनेके पहले यह आवश्यक था कि सिद्धान्तोंके उस बनावटी सम्बन्धको तोड़ डाला जाये जिसमें लाकर उन्हें एक दूसरेके सर्वथा विरुद्ध स्थापित किया गया था। बौद्धों, जैनों और चार्वाकोंने प्रचलित १. 'इंडियन फिलासफी' भा० १५० २६५-६६ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411