Book Title: Jain Dharm
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 388
________________ ३६६ जैनधर्म वान पार्श्वनाथका जन्म हुआ था । एक दिन कुमार अवस्था में पार्श्वनाथ गंगाके किनारे घूमने के लिये गये थे । वहाँ कुछ तापस पञ्चाग्नि तप रहे थे । पार्श्वनाथने आत्मज्ञानहीन इस कोरे तपका विरोध किया और बतलाया कि जो लकड़ियाँ जल रही हैं इनमें नाग-नागिनीका जोड़ा मौजूद है और उसके प्राण कंठगत हैं । जब लकड़ीको चीरा गया तो बात सत्य निकली । इस घटना के बाद ही पार्श्वनाथने प्रव्रज्या धारण कर ली थी और पूर्ण ज्ञानको प्राप्त करके जैनधर्मके सिद्धान्तोंका उपदेश जनताको दिया था । भगवान पार्श्वनाथसे लगभग अढ़ाई सौ वर्षके पश्चात् महावीर हुए और उनके बहुत पहले भगवान ऋषभदेव हुए। अतः जिस समय वैदिक आर्य भारत वर्ष में आये उस समय भी यहाँ ऋषभदेवका धर्म मौजूद था और उनके अनुयायियोंसे भी वैदिक आर्योंका संघर्ष अवश्य हुआ होगा । द्राविडवंश मूलतः भारतीय है और द्रविड़ संस्कृत भार तीय संस्कृति है; क्योंकि द्राविड़ भाषाएँ केवल भारतवर्ष में ही पाई जाती हैं । यह द्रविड़ संस्कृति अवश्य ही जैनधर्मसे प्रभावित रही है । यही कारण है जो जैनधर्ममें द्रविड़ नामसे भी एक संघ पाया जाता है । द्राविड़ वंशका एक मात्र घर दक्षिण भारत ही है अतः उनके सम्पर्क में वैदिक आर्य बहुत बादमें आये होंगे। यहीं वजह है जो ऋग्वेदके बादमें संकलित किये गये यजुर्वेद में कुछ जैन तीर्थङ्करोंके नाम पाये जाते हैं । जब वैदिक धर्म यज्ञप्रधान बन गया और पुरोहितोंका राज्य हो गया तो उसके बादमें जो हम जनतामें जो उसके प्रति अरुचि पाते हैं, जिसका उल्लेख ऊपर किया है वह आकस्मिक नहीं है किन्तु शुष्क क्रियाकाण्डकी विरोधिनी उस श्रमण संस्कृतिके विरोधका परिणाम है जिसके जन्मदाता ऋषभदेव थे । उसीके फलस्वरूप उपनिषदोंकी रचना की गई, जिनमें वेदका प्रामाण्य तो स्वीकार किया गया किन्तु उससे प्राप्त होनेवाले ज्ञानको नीचा ज्ञान बतलाया गया और आत्मज्ञानको ऊँचा

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