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जैनधर्म
हिंसाका फल प्रकट किये बिना नहीं रहता, ऐसा कहा । " उसके बाद भागवत सम्प्रदायमें वासुदेव श्रीकृष्णने अहिंसाका कथन किया । किन्तु भगवान कृष्णके यादव कुलमें मदिरापानका चलन होनेसे मद्यकी सहभावी हिंसा सर्वांशमें दूर नहीं हो सकी। कुरु-पांचाल युद्धके समयमें पारस्परिक वैरके कारण रौद्रध्यानके सिवा धर्मध्यान और शुक्लध्यानका अवकाश न था । आखिर में हिंसा पूरे वेगसे बढ़ी और भागवतधर्म अहिंसाका पक्षपाती होते हुए भी हिंसाको रोक नहीं सका । इस समयमें अहिंसाका पालन करनेवाले यतिजन भी थे । परन्तु वे वनों में रहते थे । अहिंसाके ऊपर जोर देनेवाले यतियोंका एक वर्ग मुंडक शाखाका था, किन्तु वह भी यह माननेके लिये तैयार न था कि वेदकी हिंसा वेद प्रतिपादित होनेपर भी गौण रूप है अथवा हलके धर्मरूप है ।
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'हिंसा अथवा प्राणातिपात स्वतः दोषरूप है, जिस जीवको मोक्षके मार्ग में लगना हो उसे इस दोषका पूरी तरहसे त्याग करनेके लिये बलवान प्रयत्न करना चाहिए, प्राणिवधके द्वारा देवताओंको सन्तुष्ट करनेकी भावना 'अपधर्म है, विधर्म है अथवा अधर्म है' ऐसा स्पष्ट कथन करनेवाले जैन तीर्थङ्कर थे ।
किन्तु उन चौबीस तीर्थङ्करोंमेंसे पार्श्वनाथ ( तेईसवें) और महावीर (चौबीसवें) वास्तव में ऐतिहासिक महापुरुष हैं । वे वासुदेव कृष्णके पीछे हुए हैं। इन दोनों महापुरुषोंमेंसे पार्श्वनाथ भगवान बुद्धके पहले हुए हैं, और महावीर बुद्ध समकालीन थे । इन दोनों महापुरुषोंने स्पष्ट रूपसे कहा कि हिंसा और शुद्धधर्म इन दोनोंका मेल संभव नहीं है, तथा धर्म के बहानेसे पशुवध करना पुण्य नहीं, किन्तु पाप है । इस निश्चयको उन्होंने अपने शुद्ध चारित्रके द्वारा और संघके प्रभावसे प्रजामें फैलाया। और उसका हिन्दुओंपर ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि यज्ञमें हिंसा करना धर्म है ऐसा कहनेके लिये कोई हिन्दू तैयार नहीं है । आज विद्वान् और धर्मचिन्तक शास्त्रीगण उस हिंसाका