Book Title: Jain Dharm
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 395
________________ २५ विविध ३७३ २. ब्राह्मणोंके यज्ञ और श्राद्धमें गौवध किया जाता था। उसे कलिबाह्य करार दे दिया । ३. बुद्धके शरीरके अंशोंको लेकर जो रथयात्रादि उत्सव होते थे वे वैष्णवोंकी रथयात्रारूप हो गये । ४. बौद्धोंके जातिखंडन सम्बन्धी आचार-विचार ब्रह्मवादमें समा गये । ५. बौधर्मका पंचबुद्ध शैवधर्म के पंचमुख शिवमें समा गया । ६. अश्वघोषका वज्रसूची प्रकरण, जो जातिभेदका विष्वंसक है, वह जान या अनजानमें ब्राह्मणोंके उपनिषद रूपसे जा बैठा । ७. ब्राह्मणोंके परिव्राजक और बौद्धभिक्षु ब्राह्मण-शरमण ( श्रमण ) रूपसे एकमेक हो गये । इस प्रकार बौद्धधर्म अनेकरूपसे वर्तमान हिन्दूधर्मके अनेक गली कूचोंमें फैल गया । तथा शंकर वेदान्तके मायावाद में बौद्ध विज्ञानवादियों का मायावाद गुप्तरोतिसे इस प्रकार समाया कि मानो मायाबाद सीधे मूल उपनिषदोंमेंसे ही निकला है, ऐसा हिन्दू वेदान्तियोंका दृढ़ मन्तव्य हो गया । जो आचार-विचार हजम नहीं किये जा सकते थे जैसे क्षणिकवाद, अपोहवाद वगैरह, उन्हें बौद्धोंका पाखण्डधर्म बतलाया गया और पौराणिकरूपमें हिन्दू धर्म की नई दुकान खुली। परिणाम यह हुआ कि बौद्धधर्म आर्यावर्तसे निष्कासित हो गया । जो अभ्यासी हैं वे इस वस्तुस्थितिको सरलतासे समझ सकेंगे ।" इस प्रकार बौद्धधर्मके लुप्त होनेके सम्बन्धमें अपने विचार प्रकट करनेके बाद मेहताजीने ब्राह्मणधर्मी हिन्दुओंने कौनसे प्राय अंश अथवा गुण जैनोंसे प्राप्त किये हैं यह बतलाते हुए कहा - "यज्ञ हिंसाके प्रति अरुचि दिखानेवाले प्रथम तो सांख्याचार्य कपिल थे। उन्होंने यज्ञकर्मको सदोषकर्म बतलाया और अमुक यज्ञसे स्वर्ग मिलता हो तो भी वह स्वर्गसुख समय पाकर

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