Book Title: Jain Dharm
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 404
________________ ५. जैन सूक्तियाँ प्राकृत १ णो लोगस्सेसणं चरे। -आचारांग। अर्थ-लोकैषणाका अनुसरण करना-लोगोंकी देखादेखी चलना नहीं चाहिये। २ सव्वे पाणा पियाउआ, सुहसाया दुक्खपडिकुला अप्पियवहा । पियजीविणो जीविउकामा, सव्वेसि जीवियं पियं । -आचारांग । अर्थ-समस्त जीवोंको अपना अपना जीवन प्रिय है, सुख प्रिय है, वे दुःख नहीं चाहते, वध नहीं चाहते, सब जीनेकी इच्छा करते हैं । (अतएव सबको रक्षा करनी चाहिये)। ३ सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउन मरिज्जि। तम्हा पाणवहं घोरं णिग्गंथा वज्जयंति गं ॥ -दशवकालिक । अर्थ-सब जीव जीना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता। अतएव निर्ग्रन्थ मुनि घोर प्राणिवधका परित्याग करते हैं। ४ णिस्संगो चेव सदा कसायसल्लेहणं कुणदि भिक्खू । संगाह उदीरंति कसाए अग्गीव कट्ठाणि ॥ -शिवार्य । अर्थ-परिग्रहरहित साधु ही सदा कषायोंको कृश करने में समर्थ होता है; क्योंकि परिग्रह ही कषायोंको उत्पन्न करते और बढ़ाते हैं, जैसे सूखी लकड़िकाँ अग्निको उत्पन्न करती और बढ़ाती हैं। ५ समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुखो पसंसणिंदसमो।। ___ समलोट्टकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥ -कुन्दकुन्द । अर्थ-जो शत्रु और मित्रमें, सुख और दुःखमें, प्रशंसा

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