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सिद्धान्त
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इस प्रकार धर्म शब्दसे दो अथका बोध होता है एक वस्तुस्वभावका और दूसरे चारित्र या आचारका । इनमें से स्वभावरूप धर्म तो क्या जड़ और क्या चेतन, सभी पदार्थोंमें पाया जाता है; क्योंकि संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं, जिसका कोई स्वभाव न हो । किन्तु आचाररूप धर्म केवल चेतन आत्मामें ही पाया जाता है । इसीलिए धर्मका सम्बन्ध आत्मासे है । प्रत्येक तत्त्वदर्शी धर्मप्रवर्तकने केवल आचाररूप धर्मका ही उपदेश नहीं किया किन्तु वस्तु स्वभावरूप धर्मका भी उपदेश दिया है जिसे दर्शन कहा जाता है । इसीसे प्रत्येक धर्म अपना एक दर्शन भी रखता है । दर्शनमें, आत्मा क्या है ? परलोक क्या है ? विश्व क्या है ? ईश्वर क्या है ? आदि समस्याओंको सुलझानेका प्रयत्न किया जाता है। और धर्मके द्वारा आत्माको परमात्मा बननेका मार्ग बतलाया जाता है । यद्यपि दर्शन और धर्म या वस्तु स्वभावरूप धर्म और आचाररूप धर्म दोनों जुदे - जुदे विषय हैं परन्तु इन दोनोंका परस्पर में घनिष्ट सम्बन्ध है । उदाहरण के लिये, जब आचाररूप धर्म आत्माको परमात्मा बननेका मार्ग बतलाता है तब यह जानना आवश्यक हो जाता हैं कि आत्मा और परमात्माका स्वभाव क्या है ? दोनोंमें अन्तर क्या है और क्यों है ? यह जाने बिना आचारका पालना वैसे ही लाभकारी नहीं हो सकता जैसे सोनके गुण और स्वभावसे अनजान आदमी यदि सोनेको शोधनेका प्रयत्न भी करे तो उसका प्रयत्न लाभकारी नहीं हो सकता । तथा यह बात सर्वविदित है कि विचार के अनुसार ही मनुष्यका आचार होता है । उदाहरण के लिये, जो यह मानता है कि आत्मा नहीं है और न परलोक हैं उसका आचार सदा भोगप्रधान ही रहना है, और जो यह मानता है कि आत्मा हैं, परलोक है, प्राणी अपने २ शुभाशुभ कर्म के अनुसार फल भोगता है तो उसका आचार उससे बिलकुल विपरीत ही होता है । अतः विचारोंका मनुष्यके आचारपर, बड़ा प्रभाव पड़ता है। इसीसे दर्शनका