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जैनधर्म
शराब पीनेसे नशा होता है और दूध पीनेसे पुष्टि होती है । शराब या दूध पीने के बाद उसका फल देनेके लिये किसी दूसरे शक्तिमान नियामककी आवश्यकता नहीं होती । उसी तरह जीव की प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तिके साथ जो कर्मपरमाणु जीवात्माकी ओर आकृष्ट होते हैं और रागद्वेपका निमित्त पाकर उस जीवसे बंध जाते हैं, उन कर्म परमाणुओं में भी शराब और दूधकी तरह अच्छा और बुरा प्रभाव डालने की शक्ति रहती हैं, जो चैतन्यके सम्बन्धसे व्यक्त होकर जीवपर अपना प्रभाव डालती है और उसके प्रभाव से मुग्ध हुआ जीव ऐसे काम करता है जो सुखदायक वा दुःखदायक होते हैं । यदि कर्म करते समय जीवके भाव अच्छे होते हैं तो बँधनेवाले कर्मपरमाणुओं पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और बादको उनका फल भी अच्छा ही होता है । तथा यदि बुरे भाव होते हैं तो बुरा असर पड़ता है और कालान्तर में उसका फल भी बुरा ही होता है ।
मानसिक भावोंका अचेतन वस्तुके ऊपर कैसे प्रभाव पड़ता है और उस प्रभावकी वजहसे उस अचेतनका परिपाक कैसे अच्छा या बुरा होता है ? इत्यादि प्रश्नोंके समाधानके लिये चिकित्सकों के भोजन सम्बन्धी नियमोंपर एक दृष्टि डालनी चाहिये । वैद्यकशास्त्र के अनुसार भोजन करते समय मनमें किसी तरहका क्षोभ नहीं होना चाहिये; भोजन करनेसे आधा घंटा पहलेसे लेकर भोजन करनेके आधा घंटा बाद तक मनमें अशान्ति उत्पन्न करनेवाला कोई विचार नहीं आना चाहिये । ऐसी दशा में जो भोजन किया जाता है, उसका परिपाक अच्छा होता है और वह विकार नहीं करता । किन्तु इसके विपरीत काम, क्रोध आदि विकारोंके रहते हुए यदि भोजन किया जाता है तो वह भोजन शरीरमें जाकर विकार उत्पन्न करता है । इससे स्पष्ट है कि कर्ताके भावोंका असर अचेतनपर भी पड़ता है और उसके अनुसार ही उसका विपाक होता है। अतः जीवको फल भोगने में परतन्त्र माननेकी आवश्यकता नहीं हैं ।