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जैनधर्म
'श्रमण' शब्दका अपभ्रंश जान पड़ता है । प्राचीनकालमें जैन साधु श्रमण कहलाते थे । इस प्रकारसे सलूनो या रक्षाबन्धनका त्यौहार जैन त्यौहारके रूपमें जैनोंमें आज भी मनाया जाता है । उस दिन विष्णुकुमार और सात सौ मुनियोंकी पूजा की जाती हैं। उसके बाद परस्पर में राखी बाँधकर दीवारोंपर चित्रित 'सौनों' को आहार दान दिया जाता है । तब सब भोजन करते हैं और गरीबों तथा ब्राह्मणोंको दान भी देते हैं। ३. तीर्थक्षेत्र
साधारणतः जिस स्थानकी यात्रा करनेके लिए यात्री जाते हैं उसे तीर्थ कहते हैं । तीर्थ शब्दका अर्थ घाट अर्थात् स्नान करनेका स्थान भी होता है किन्तु जैनोंमें कोई स्नानस्थान तीर्थ नहीं है। नदियोंके जलमें पापनाशक शक्ति है यह बात हिन्दू मानते हैं किन्तु जैन नहीं मानते। इसी प्रकार सती होने की प्रथा हिन्दुओंकी दृष्टि से मान्य है और इसलिए वे सतियोंके स्थानोंको भी तीर्थको तरह पूजते हैं, किन्तु जैन उन्हें नहीं मानते। जैन दृष्टिसे तो तीर्थशब्दका एक ही अर्थ लिया जाता है - 'भवसागर से पार उतरनेका मार्ग बतलानेवाला स्थान' । इसलिए जिन स्थानोंपर तीर्थङ्करोंने जन्म लिया हो, दीक्षा धारण की हो, तप किया हो, पूर्णज्ञान प्राप्त किया हो, या मोक्ष प्राप्त किया हो, उन स्थानोंको जैनी तीर्थस्थान मानते हैं । अथवा जहाँ कोई पूज्य वस्तु वर्तमान हो, तीर्थङ्करोंके सिवा अन्य महापुरुष जहाँ रहे हों या उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया हो, वे स्थान भी तीर्थ माने जाते हैं।
पंचमी के दिन जो चित्रकारी की जाती है वह नागोंकी सूचक है और रक्षाबन्धनके दिन जो चित्रकारी की जाती है वह गरुड़की सूचक है । नागों और गरुड़ोंके वैमनस्यका उल्लेख वैदिक साहित्यमें पाया जाता है । तथा वह प्रकाश और अन्धकार कीलड़ाईका भी सूचक है । रक्षाबन्धनके दिन गरुड़ या प्रकाशकी विजय नागों अथवा अन्धकार पर हुई थी ।