Book Title: Jain Dharm
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 339
________________ सामाजिक रूप ३१७ इस पंथमें साधुसंघके अधिपति पूज्यश्री महाराज होते हैं। साधुओंको उनकी आज्ञा माननी पड़ती है और प्रतिदिन विधिपूर्वक उनका सन्मान करना होता है। इस पन्थका प्रचार पश्चिम भारतमें अधिक है, कलकत्ता जैसे नगरों में भी इस पन्थके श्रावक रहते हैं। ३. यापनीय संघ जैनधर्मके दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंसे तो साधारणतः सभी परिचित हैं। किन्तु इस बातका पता जैनोंमेंसे भी कम ही को है कि इन दोके अतिरिक्त एक तीसरा सम्प्रदाय भी था जिसे यापनीय या गोप्यसंघ कहते थे। __यह सम्प्रदाय भी बहुत प्राचीन है। दर्शनमारके' कर्ता श्री देवसेनसूरिफे कथनानुसार वि० सं २०५ में श्रीकलश नामके श्वेताम्बर साधुने इस सम्प्रदायकी स्थापना की थी। यह समय दिगम्बर-श्वेताम्बर भेदको उत्पत्तिसे लगभग ७० वर्ष बाद पड़ता है। किसी समय यह सम्प्रदाय कर्नाटक और उसके आस पास बहुत प्रभावशाली रहा है। कदम्ब, राष्ट्रकूट और दूसरे वंशांके राजाओंने इसे और इसके आचार्योंको अनेक दान दिये थे। यापनीय संघके मुनि नग्न रहते थे, मोरके पंखोंकी पिच्छी रखते थे और हाथमें ही भोजन करते थे। ये नग्न मूर्तियोंको पूजते थे और वन्दना करनेवाले श्रावकोंको 'धर्म-लाभ' देते थे। ये सब बातें तो इनमें दिगम्बरों जैसी ही थीं, किन्तु साथ ही साथ वे मानते थे कि त्रियोंको उसी भवमें मोभ हो सकता है और केवली भोजन करते हैं। वैयाकरण शाकटायन (पाल्यकोर्ति ) यापनीय थे । इनकारची अमोघवृत्तिके कुछ उदाहरणों १ "कल्लाणे वरणयरे दुण्णिसए पंच उत्तरे जादे । जावणियसंघभावो मिरिकलमादो हु सेवइदो ॥२९॥"

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