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सिद्धान्त
७७ सातवाँ भंग बनता है। किन्तु लोक व्यवहारमें मूल चार तरह के वचनोंका व्यवहार देखा जाता है। __स्वामी शंकराचार्यने चौथे भंग 'स्यादवक्तव्य' पर भी आपत्ति की है। वे कहते हैं कि-"पदार्थ अवक्तव्य भी नहीं हो सकते । यदि वे अवक्तव्य हैं तो उनका कथन नहीं किया जा सकता है। कथन भी किया जाय और अवक्तव्य भी कहा जाये ये दोनों बातें परस्परमें विरुद्ध हैं"। किन्तु यदि जैन वस्तुको सर्वथा अवक्तव्य कहते तव तो आचार्य शंकरका उक्त दोषदान उचित होता । किन्तु वे नो अपेक्षा भेदसे अवक्तव्य कहते हैं, इसीका सूचन करने के लिये स्यात शब्द अवक्तव्यकं साथ लगाया है जो बतलाता है कि वस्तु सर्वथा अवक्तव्य नहीं है, किन्तु किसी एक दृष्टिकोणसे अवक्तव्य है। ___ इससे स्पष्ट है कि आचार्यशंकर स्याद्वादको समझ नहीं सके। इसलिये स्वर्गीय महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ झा ने लिखा है_ “जबसे मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्तका खण्डन पढ़ा है तबसे मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्तमें बहुत कुछ है, जिसे वेदान्तके आचार्योंने नहीं समझा। और जो कुछ मैं अब तक जैनधर्मको जान सका हूँ उससे मेरा यह दृढ़ विश्वास हुआ है कि यदि वे जैनधर्मको उसके मूलग्रन्थोंसे देखनेका कष्ट उठाते नो उन्हें जैनधर्मका विरोध करनेकी कोई बात नहीं मिलती।"
हिन्दू विश्वविद्यालयके दर्शन शास्त्रके भूतपूर्व प्रधान अध्यापक श्रीफणिभूषण अधिकारीने श्रीस्याद्वाद महाविद्यालय काशीके वार्षिकोत्सवके अध्यक्ष पदसे अपने भाषणमें कहा था
'जैनधर्मक स्याद्वादसिद्धान्तको जितना गलत समझा गया
१. "न चैपां पदार्थानामवक्तव्यत्वं संभवति । अवक्तव्यश्चेन्नोच्येरन् । उच्यन्ते चावक्तव्याश्चेति विप्रतिपिद्धम्" ।-ब्रह्मसू० शां० २-२-३३ ।