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जैनधर्म
परमात्मामें इतना ही अन्तर है कि जीवात्मा अशुद्ध होता है, काम-क्रोधादि विकारों और उनके कारण कर्मोंसे घिरा होता हैं, जिनकी वजहसे उसके स्वाभाविक गुण - अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य प्रकट नहीं हो पाते। जब वह उन कर्मोंका नाश कर देता है तो वही परमात्मा बन जाता है, वही जिन कहलाता है । 'जिन' हो जानेपर प्रत्येक जीव सर्वज्ञ और वीतराग हो जाता है, उसे मबका ज्ञान रहता है और उसके अन्दरसे राग और द्वेषका मूलोच्छेद हो जाता हैं । उस अवस्थामें वह जो उपदेश देना है वह उपदेश प्रामाणिक होता है; क्योंकि अप्रामाणिकताके दो ही कारण हैं, एक अज्ञान और दूसरा रागद्वेष | मनुष्य या तो अज्ञानसे, ज्ञान न होनेसे नासमझीके कारण गलत बात बोलता है या ज्ञानवान होकर भी किसीसे राग और किसी से द्वेप होनेसे गलत बात वोलता है । उदाहरण के लिए जैन पुराणोंमें और महाभारत में एक कथा है ।
जैन पुराणोंके अनुसार नारद, पर्वत और वसु ये तीनों गुरु भाई थे। इनमें से पर्वत गुरुपुत्र था और शेष दोनों उसके पिताके शिष्य थे। एक बार 'अजैर्यष्टव्यम्' के अर्थके सम्बन्ध में नारद और पर्वत में विवाद हुआ। महाभारतके अनुसार देवताओं और ऋषियोंमें विवाद हुआ। पर्वत या देवताओंका कहना था कि इसका अर्थ है 'बकरेसे हवन करना चाहिए' और नारद या ऋषियों कहना था कि इसका अर्थ हैं 'पुराने धान्य से हवन करना चाहिए ।' दोनों पक्ष राजा वसुके पास गये | वसु सत्यवादी था इसलिए उसका सिंहासन पृथ्वीसे ऊपर उठा रहता था । किन्तु वसुने गुरुपुत्र पर्वत या देवताओंके प्रेमवश जानते हुए भी यही फैसला दिया कि जो पर्वत या देवता कहते हैं वही ठीक है । इस असत्यवादिता के कारण वसुका सिंहासन पृथ्वीमें धँस गया । यहाँ पर्वत तो अज्ञानसे 'अजैर्यष्टव्यम्' का अर्थ गलत बतलाता था किन्तु वसुने जानते हुए भी गुरुपुत्रके प्रेमवश झूठ बोला । अतः असत्य बोलनेके दो ही कारण हैं
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