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इतिहास
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करणने अपने शाकटायन नामक जैन व्याकरणपर इसीके नाम से अमोघवृत्ति नामकी टीका बनाई। इसीके समय में जैनाचार्य महावीर ने अपने गणितसारसंग्रह नामक ग्रन्थको रचना की, जिसके प्रारम्भमें अमोघवर्षकी महिमाका वर्णन विस्तारसे किया गया है । अमोघवर्पने स्वयं भी 'प्रश्नोत्तर रत्नमाला' नामकी एक पुस्तिका रची। स्वामी जिनसेनने भी अनेक ग्रन्थ रचे ।
अमोघवर्षने जिनसेनके शिष्य गुणभद्रको भी आश्रय दिया । गुणभद्रने अपने गुरु जिनसेनके अधूरे ग्रन्थ आदिपुराणको पूर्ण किया और अन्य भी अनेक ग्रन्थ रचे । अमोघवर्षका पुत्र अकालवर्ष भी जैनधर्मका प्रेमी था। इसके समयमें गुणभद्रने अपना उत्तरपुराण पूर्ण किया। इसने भी जैनमन्दिरोंको दान दिया और जैन विद्वानोंका सम्मान किया । जब पश्चिमके चालुक्योंने राष्ट्रकूटों की सत्ताका अन्त कर दिया तो इस वंशके अन्तिम राजा 'इन्द्रने अपने राज्यको पुनः प्राप्त करनेका यत्न किया किन्तु उसे सफलता नहीं मिली । अन्तमें उसने जिन दीक्षा धारण करके श्रवणबेलगोला में समाधिपूर्वक प्राणोंका त्याग किया । लोकादित्य इनका सामंत और वनवास देशका राजा था । गुणभद्राचार्यने इसे भी जैनधर्मकी वृद्धि करनेवाला और महान् यशस्वी बतलाया है ।
४. कदम्ब वंश
यद्यपि यह वंश ब्राह्मण धर्मानुयायी था, किन्तु इसके कुछ नरेशोंकी धार्मिक नीति बड़ी उदार थी और कुछ तो जैनधर्मके प्रतिपालक भी थे । इस वंशके पाँचवे राजा काकुत्स्थवर्माने अपने एक जैन सेनापति श्रुतकीर्तिको अर्हन्तोंके लिये भूमिदान किया था। काकुत्स्थवर्माके पौत्र मृगेशवर्माने अपने राज्यके तीसरे वर्षमें अर्हन्तदेवके पूजनादिके लिये भूमिदान किया था । तथा अपने राज्यके चतुर्थ वर्ष में एक गांवको तीन भागों में