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इतिहास इससे स्पष्ट है कि उस समयके प्रमुख राजवंश प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे महावीरसे प्रभावित थे।
इसके सिवाय भगवान महावीरके ग्यारह प्रधान शिष्य थे, जिनमें मुख्य गौतम गणधर थे। भगवान महावीरके पश्चात उनके शिष्योंमेंसे तीन केवलज्ञानी हुए-गौतम गणधर, सुधस्विामी और जम्बू स्वामी। तथा इनके पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए-विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु । अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु मगधमें दुर्भिक्ष पड़नेपर एक बड़े जैन संघके साथ दक्षिण देशको चले गये, जिसके कारण तमिल और कर्नाटक प्रदेशमें जैनधर्मका खूब प्रसार हुआ।
अतः भगवान महावीरके पश्चात जैनधर्मकी स्थितिका परिचय करानेके लिये उसे दो भागों में बाँट देना अनुचित न होगा-एक उत्तर भारतमें जैनधर्मकी स्थिति और दृसरा दक्षिण भारतमें जैनधर्मकी स्थिति ।
उत्तर भारतमें जैनधर्म उत्तर भारतके विभिन्न प्रान्तोंमें जैनधर्मकी स्थिति तथा राजघरानोंपर उनके प्रभावका परिचय करानेसे पूर्व पूरी स्थितिका विहंगावलोकन करना अनुचित न होगा।
विभिन्न बौद्ध इतिहासज्ञोंके कथनसे पता चलता है कि बुद्ध निर्वाणके पश्चात् प्रथम शतीमें उत्तर भारतके विभिन्न स्थानोंमें जैन लोग प्रमुख थे । चीनी यात्री हुएनत्सांग ईस्वी सन् की सातवीं शतीमें भारत आया था । वह अपने यात्रा विवरणमें नालन्दाके विहारका वर्णन करते हुए लिखता है कि निर्ग्रन्थ (जैन) साधुने जो ज्योतिप विद्याका जानकार था, नये भवनकी सफलताकी भविष्यवाणी की थी। इससे प्रकट है कि उस समय मगध राज्यमें जैनधर्म फैला हुआ था। जैनधर्मकी उन्नतिका सूचक दूसरा मुख्य प्रमाण अशोककी प्रसिद्ध घोषणा है, जिसमें निर्ग्रन्थोंको दान देनेकी आज्ञा है। जो बतलाती है कि अशोकके समयमें जैन-जो पहले निर्ग्रन्थके