________________
इतिहास
३७
समयमें जैनधर्म कई शताब्दियों तक उड़ीसाका राष्ट्रीय धर्म रह चुका था ।'
महाराजा खारवेलने १५ वर्षकी अवस्थामें युवराज पद प्राप्त किया और २४ वर्षकी अवस्थामें इनका महाराज्याभिषेक हुआ । उसके बाद दूसरे ही वर्ष उसने सातकर्णिकी परवाह न करके पश्चिम देशको अपनी सेना भेजी और उस सेनाने मूषिक नगरको परास्त किया। चौथे वर्ष खारवेलने फिर पश्चिमपर चढ़ाई की और रठिकोंके भोजक अपने मुकुट और छत्र शृङ्गार छोड़कर उसके चरणोंपर झुकनेको बाध्य हुए। वाख्त्रीका यवनराजा एक भारी सेना ले मध्यदेशपर चढ़ आया । खारवेलने आगे बढ़कर दिमितको निकाल भगाया । मध्यदेशसे यवनोंको पूरी तरह खदेड़नेका श्रेय खारवेलको ही है । बारहवें वर्ष में उसने पञ्जाबपर चढ़ाई की । सातकर्णी के राज्यपर दो चढ़ाइयाँ करने और यवनराज दमितिको मध्यदेश से निकाल भगाने के बाद खारवेल अपने समय के सब भार - तीय राजाओं में प्रमुख माना जाने लगा। अभी तक उसने अपने देश कलिंगके पश्चिमी पड़ोसी राज्य मूषिक और महाराष्ट्रपर तथा उत्तर पड़ोसी राज्य मगधपर चढ़ाइयाँ की थीं। अब उसने उत्तर और दक्खिनमें दूर दूर तक दिग्विजय करना शुरू किया । उसकी शक्ति भारत के अन्तिम छोरों तक पहुँच गई। बारहवें वर्ष उसने उत्तरापथके राजाओंको त्रस्त किया । मगधपर चढ़ाई करके मगधके राजा पुष्यमित्रको पैरों गिरवाया। राजा नन्द द्वारा ले जायी गई हुई कलिंग जिनमूर्तिको स्थापित किया। इस महाविजयके बाद, जब कि शुंग और सातवाहन तथा उत्तरापथके यवन सब दब गये, खारवेलने जैनधर्मका महा अनुष्ठान किया। उन्होंने भारतवर्ष भरके जैन यतियों, जैन तपस्वियों, जैन ऋषियों और पंडितों को बुलाकर एक धर्म-सम्मेलन किया । जैनसंघने खारवेलको 'महाविजयों' की पदवीके साथ 'खेमराजा', 'भिखुराजा' और धर्मराजाकी