________________
३०
जैनधर्म
जब पुनः तीर्थङ्कर होने प्रारम्भ होंगे तो राजा श्रेणिक जैनधर्मका प्रथम तीर्थङ्कर होगा ।"
अजातशत्रु ( ५५२ - ५१८ ई० पू० )
यद्यपि बौद्धसाहित्य में अजातशत्रुके बौद्धधर्म अंगीकार करनेका उल्लेख मिलता है, तथापि खोज करनेसे प्रतीत होता है कि अजातशत्रु जैनधर्मकी तरफ अधिक आकर्षित था ।
स्व० डा० याकोवी जैनसूत्रोंकी प्रस्तावना में लिखते हैं'अजातशत्रुने अपने राज्यके प्रारम्भकालमें बौद्धोंकी तरफ कोई सहानुभूति नहीं दिखलाई थी । किन्तु बुद्ध के निर्वाणसे ८ वर्ष पहले वह बुद्धका आश्रयदाता बना था । किन्तु उस समय वह सद्भावनापूर्वक बौद्धधर्मानुयायी बना था, यह तो हम नहीं मान सकते। कारण यह है कि जो मनुष्य खुली रीति अपने पिताका खूनी था तथा अपने नानाके साथ जिसने लड़ाई लड़ी थी वह मनुष्य अध्यात्मज्ञानके लिये बहुत उत्सुक हो यह असंभव है । उसके धर्मपरिवर्तन करनेका क्या उद्देश्य था इसका हम सरलतासे अनुमान कर सकते हैं। बात यह है कि उसने अपने नाना वैशालीके राजाके साथ युद्ध किया था । यह राजा महावीरका मामा (नाना ) था और जैनोंका संरक्षक था । इसलिये इसके ऊपर चढ़ाई करनेके कारण अजातशत्रु जैनोंकी सहानुभूति खो बैठा। इससे उसने जैन के प्रतिस्पर्धी बौद्धोंके साथ मिलनेका निश्चय किया था ।' आगे डा० याकोबी लिखते हैं
अजातशत्रु एक तो वैशालीको जीतनेमें सफल हुआ था, दूसरे उसने नन्दों और मौर्योंके साम्राज्यका पाया खड़ा किया था । इस प्रकार मगध साम्राज्यकी सीमा बढ़नेसे जैन और बौद्ध दोनों धर्मोंके लिये नया क्षेत्र खुल गया था । इससे वे दोनों तुरन्त उस क्षेत्रमें फैल गये । जब दूसरे सम्प्रदाय स्थानीय और अस्थायी महत्त्व प्राप्त करके ही रह गये तब ये दोनों धर्म