Book Title: Jain Acharyo ka Shasan Bhed Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay View full book textPage 8
________________ जैनाचार्योका शासनमेद रके नहीं हो सकते। किसी समयके शिष्य संक्षेपप्रिय होते हैं और किसी समयके विस्ताररुचिवाले। कभी लोगोंमें प्राजुजडताका अधिक संचार होता है, कभी वक्रजडताका और कभी इन दोनोंसे अतीत अवस्था होती है। किसी समयके मनुष्य स्थिरचित्त, दृढवुद्धि और बलवान् होते हैं और किसी समयके चलचित्त, विस्मरणशील और निर्बल। कभी लोकमें मूढता बढ़ती है और कभी उसका हास होता है। इस लिये जिस समय जैसी जैसी प्रकृति और योग्यताके शिष्योंकीउपदेशपात्रोंकी-बहुलता होती है, उस समय उस वक्तकी जनताको लक्ष्य करके तीर्थंकरोंका उसके उपयोगी वैसा ही उपदेश तथा वैसा ही व्रतनियमादिकका विधान होता है। उसीके अनुसार मूलगुणोंमें भी हेरफेर हुआ करता है। : आज मैं अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीरस्वामीके पश्चात् होनेवाले जैनाचार्योक परस्पर शासनभेदको दिखलाना चाहता हूँ। यह परस्परका शासनभेद दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही संप्रदायोंमें पाया जाता है। अंतः, इस लेखमें, दिगम्बराचार्योंकि शासन-भेदको प्रकट करते हुए श्वेताम्बराचार्योके शासनभेदको भी यथाशक्ति दिखलानेकी चेष्टा की जायगी। इस शासन-भेदको प्रदर्शित करनेमें मेरा अभिप्राय केवल इतना ही है कि जैनियोंको वस्तु-स्थितिका यथार्थ परिज्ञान हो जाय, वे अपने वर्तमान आगमकी वास्तविक स्थिति और उसके यथार्थ स्वरूपकोभले प्रकार समझने लगें और इस तरहसे प्रवुद्ध होकर अपना वास्तविक हितसाधन करनेमें समर्थ हो सके। साथ ही, भेद-विषयोंके सामने आनेपर विद्वानोंद्वारा उनके कारणोंका गहरा अनु. संधान हो सके और फिर इस अनुसंधान-द्वारा तत्तत्कालीन सामाजिकPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 87