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जैनाचार्योंका शासनभेद
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परिमाण, २ अनर्थदंड विरति, ३ भोगोपभोगपरिमाण, ४ ओवश्यकतानुत्पादन, ५ अन्तःकरणानुवर्तन, ६ सामायिक और ७ निष्काम सेवा ( अनपेक्षितोपकार ) नामके सप्तशीलव्रत, अथवा गुणत्रत और शिक्षाव्रत, स्थापित करे तो वह खुशीसे ऐसा कर सकता है। उसमें कोई आपत्ति किये जानेकी जरूरत नहीं है और न यह कहा जा सकता है कि उसका ऐसा विधान जिनेंद्रदेवकी आज्ञा के विरुद्ध है अथवा महाचीर भगवानके शासन से बाहर है; क्योंकि उक्त प्रकारका विधान जैनसिद्धान्तोंके विरुद्ध नहीं है । और जो विधान जैनसिद्धान्तोंके विरुद्ध नहीं होता वह सब महावीर भगवान के अनुकूल है। उसे प्रकारान्तरसे जैन सिद्धान्तों की व्याख्या अथवा उनका व्यावहारिक रूप समझना चाहिये, और इस दृष्टिसे उसे महावीर भगवानका शासन भी कह -सकते हैं । परंतु भिन्न शासनों की हालत में महावीर भगवानने यही कहा, ऐसा ही कहा, इसी क्रमसे कहा इत्यादिक मानना मिथ्या होगा और उसे प्रायः मिध्यादर्शन समझना चाहिये । अतः उससे बचकर यथार्थ वस्तुस्थितिको जानने और उसपर ध्यान रखनेकी कोशिश करनी चाहिये । इसीमें वास्तविक हित संनिहित है। और यह बात पहले भी बतलाई जा चुकी है ।
यहाँ श्वेताम्बर आचार्योंकी दृष्टिसे में, इस समय, सिर्फ इतना और `चतला देना चाहता हूँ कि, श्वेताम्बरसम्प्रदायमें अमतौरपर १ दिग्नत, २ उपभोगपरिभोगपरिमाण, ३ अनर्थदंडविरति इन तीनको गुणवत और १ सामायिक, २ देशावका शिक, ३ प्रोषधोपवास, ४ अतिथि
१. जरूरतोंको बढ़ने न देना, प्रत्युत घटाना । २ अन्तःकरणकी आवाज़के -विरुद्ध न चलना