Book Title: Jain Acharyo ka Shasan Bhed
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 75
________________ परिशिष्ट लिये प्रकटरूपसे वे जिस दोषका आचरण करते हैं उस दोषमें आत्मनिन्दा करते हुए शुद्ध हो जाते हैं । पर आदि और अन्तके दोनों तीर्थंकरोंके शिष्य चलचित्त, विस्मरणशील और मूढमना होते हैं-शास्त्रका बहुत बार प्रतिपादन करने पर भी उसे नहीं जान पाते। उन्हें क्रमशः ऋजुजड और वक्रजड समझना चाहिये-इसलिये उनके समस्त प्रतिक्रमणदण्डकोंके उच्चारणका विधान किया गया है और इस विषयमें अन्धे घोड़ेका दृष्टान्त बतलाया गया है। टीकाकारने इस दृष्टान्तका जो स्पष्टीकरण किया है उसका भावार्थ इस प्रकार है 'किसी राजाका घोड़ा अन्धा हो गया। उस राजाने वैद्यपुत्रसे घोड़ेके लिये ओपधि पूछी। वह वैद्यपुत्र वैद्यक नहीं जानता था, और वैद्य किसी दूसरे ग्राम गया हुआ था। अतः उस वैद्यपुत्रने घोड़की आँखको आराम पहुँचानेवाली समस्त ओपधियोंका प्रयोग किया और उनसे वह घोड़ा नारोग हो गया । इसी तरह साधु भी एक प्रतिक्रमण-. दण्डकमें स्थिरचित्त नहीं होता हो तो दूसरे में होगा, दूसरेमें नहीं तो तीसरेमें, तीसरेमें नहीं तो चौथैमें होगा, इस प्रकार सर्वप्रतिक्रमण-दण्डकोंका उच्चारण करना न्याय है। इसमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि सब ही प्रतिक्रमण-दण्डक कर्मके क्षय करनेमें समर्थ हैं । ___ मूलाचारके इस सम्पूर्ण कथनसे यह बात स्पष्टतया विदित होती है कि समस्त जैनतीर्थंकरोंका शासन एक ही प्रकारका नहीं रहा है। पल्कि समयकी आवश्यकतानुसार-लोकस्थितिको देखते हुए उसमें कुछ परिवर्तन जरूर होता रहा है । और इसलिये जिन लोगोंका ऐसा खयाल है कि जैनतीर्थंकरोंके उपदेशमें परस्पर रंचमात्र भी भेद या परिवर्तन नहीं होता जो वचनवर्गणा एक तीर्थकरके मुंहसे

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