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परिशिष्ट
संभव है कि 'परैः' पदकी इस सीमाके निर्धारित करनेका उद्देश्य मूलाचारके साथ पूज्यपादके इस कथनकी संगतिको ठीक बिठलाना रहा हो। परन्तु वास्तवमें यदि इस सीमाको न भी निर्धारित किया जाय और यह मान लिया जाय कि अपभदेवने भी इस त्रयोदशविधरूपसे चारित्रका उपदेश नहीं दिया है तो भी उसका मूलाचारके साथ कोई विरोध नहीं आता है। क्योंकि यह हो सकता है कि ऋषभदेवने पंचमहाव्रतोंका तो उपदेश दिया हो-उनका छेदोपस्थापना संयम अहिंसादि पंचभेदात्मक ही हो-किन्तु पंचसमितियों और तीन गुप्तियोंका उपदेश न दिया हो, और उनके उपदेशकी जरूरत भगवान् महावीरको ही पड़ी हो। और इसी लिये उनका छेदोपस्थापन संयम इस तेरह प्रकारके चारित्रभेदको लिये हुए हो, जिसकी उनके नामके साथ खास प्रसिद्धि पाई जाती है। परन्तु कुछ भी हो, अपभदेवने भी इस तेरह प्रकारके चारित्रका उपदेश दिया हो या न दिया हो, किन्तु इसमें तो सन्देह नहीं कि शेप वाईस तीर्थंकरोंने उसका उपदेश नहीं दिया है। ___यहाँपर इतना और भी बतला देना जरूरी है कि भगवान् महाचीरने इस तेरह प्रकारके चारित्रमेंसे दस प्रकारके चारित्रको-पंचमहाब्रतों और पंचसमितियोंको-मूलगुणों में स्थान दिया है। अर्थात्, साधुओंके अट्ठाईस* मूलगुणोंमें दस मूलगुण इन्हें करार दिया है।
* अहाईस मूलगुणों के नाम इसप्रकार हैं:
१ अहिंसा, २ सत्य, ३ अस्तेय, ४ ब्रह्मचर्य, ५ अपरिग्रह (ये पाँच महाव्रत); ६ ईयां, ७ भापा, ८ एपणा, ९ आदाननिक्षेपण, १० प्रतिष्ठापन, (ये पांच । समिति); ११-१५ स्पर्शन-सन-प्राण-चक्षु-श्रोत्र-निरोध (ये पंचेंद्रियनिरोध); १६ सामायिक, १७ स्तव, १८ वन्दना, १९ प्रतिक्रमण, २० प्रत्याख्यान,