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जैनाचार्योंका शासनभेद अपेक्षाभेद, विषयभेद, क्रमभेद, प्रतिपादकोंकी समझ और प्रतिपाद्योंकी स्थिति आदिका भेद अवश्य है, जिसके कारण उक्त शासनोंको विभिन्न जरूर मानना पड़ेगा। और इस लिये यह कभी नहीं कहा जा "सकता कि महावीर भगवानने ही इन संच विभिन्न शासनोंका विधान किया था-उनकी वाणीमें ही ये सब मत अथवा इनके प्रतिपादक शास्त्र इसी रूपसे प्रकट हुए थे। ऐसा मानना और समझना नितान्त भूलसे परिपूर्ण तथा वस्तुस्थितिके विरुद्ध होगा। अतः श्रीकुंदकुंदाचार्यने गुणवतोंके संबंधमें, 'एव, शब्द लगाकर-इयमेव गुणव्वया तिण्णि' ऐसा लिखकर-जो यह नियम दिया है कि, दिशाविदिशाओंका परिमाण, अनर्थदंडका त्याग और भौगोपभोगका परिमाण, ये ही तीन गुणव्रत है, दूसरे नहीं, इसे उस समयका, उनके सम्प्रदायका अथवा खास उनके शासनका नियम समझना चाहिये । और श्रीअमिता गतिने. 'जिनेश्वरसमाख्यातं त्रिविधं तदगुणवतं' इस वाक्यके द्वारा दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदंडविरतिको जो जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ गुणव्रत बतलाया है उसका आशय प्रायः इतना. ही लेना चाहिये कि असितगति इन व्रतोंको जिनेंद्रदेवका--महावीर भगवानका-कहा हुआ समझते थे अथवा अपने शिष्योंको इस ढंगसे समझाना उन्हें इष्ट था। इसके सिवाय, यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि महावीर भगचानने ही इन दोनों प्रकारके गुणवतोंका प्रतिपादन किया था। .इसी तरह अन्यत्र भी जानना । .
'वास्तवमें हर एक आचार्यः उसी मतका प्रतिपादन करता है
जो उसे. इष्ट होता है और जिसे वह अपनी समझके अनुसार . सबसे अच्छा तथा उपयोगी समझता, है । और इस लिये इन