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गुणव्रत और शिक्षावत अन्य संपूर्ण देशों-भागों के त्यागका विधान करते हैं चाहे उनमें व्रतमंगका कोई कारण हो या न हो । जैसा कि देशावकाशिक व्रतके निम्न लक्षणसे प्रकट है:
स्थास्यामीदमिदं यावदियकालमिहास्पदे । इति संकल्प्य संतुष्टस्तिष्टन्देशावकाशिकी ॥
-इत्याशाधरः। ' यहाँ पर मुझे इन व्रतोंके लक्षणादिसम्बन्धी विशेप मतभेदको दिखलाना इष्ट नहीं है । वह वसुनन्दीसे पहले उल्लेख किये हुए आचार्योंमें भी, थोड़ा बहुत, पाया जाता है। और इन व्रतोंके अतिचारोंमें भी अनेक आचार्योंके परस्पर मतभेद है, इस संपूर्ण मतभेदको दिखलानेसे लेख बहुत बढ़ जायगा । अतः लक्षण, स्वरूप तथा अतीचारसंबंधी विशेष मतभेदको फिर किसी समय दिखलानेका यत्न किया जायगा। यहाँ, इस समय, सिर्फ. इतना ही समझना चाहिये कि इन दोनों प्रकारके व्रतोंके भेदादिकप्रतिपादनमें आचार्योंके परस्पर बहुत कुछ मतभेद है । इन व्रतोंका विषयक्रम कक्षाओं के पठनक्रम (कोर्स course) की तरह समय समयपर बदलता. रहा है। और इस लिये यह कहना बहुत कठिन है कि महावीर भगवानने इन विभिन्न शासनों से कौनसे शासनका प्रतिपादन किया था । संभव है कि उनका शासन इन सबोंसे कुछ विभिन्न रहा हो। परंतु इतना जरूर कह सकते हैं कि इन विभिन्न शासनोंमें परस्पर सिद्धान्तभेद नहीं है-जैनसिद्धान्तोसे कोई विरोध नहीं आता-और न इनके प्रतिपादनमें जैनाचार्योंका परस्पर कोई उद्देश्यभेद पाया जाता है। सबोंका उद्देश्य सावध कोके त्यागकी परिणतिको क्रमशः बढ़ाने-उसे अणुव्रतोंसे महावतोंकी ओर ले जाने और लोभादिकका निग्रह कराकर संतोपके साथ शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करानेका मालूम होता है। हाँ दृष्टिभेद,