Book Title: Jain Acharyo ka Shasan Bhed
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 63
________________ गुणवत और शिक्षावत ५७ क्यों रक्खा है, जबकी शिक्षात्रत अभ्यासके लिये नियत किये गये हैं और सल्लेखना मरणके सन्निकट होनेपर एक बार ग्रहण उसका पुनः पुनः अनुष्ठान नहीं होता और की जाती है, · I ". - इसलिये उसके द्वारा प्रायः कोई अभ्यासविशेष नहीं बनता । दूसरे, प्रतिमाओंका विषय अपने अपने पूर्वगुणोंके साथ क्रम-विवृद्ध बतलाया गया है । अर्थात्, उत्तर-उत्तरकी प्रतिमाओंमें, अपने अपने गुणोंके साथ, पूर्व-पूर्वकी प्रतिमाओं के सारे गुण विद्यमान होने चाहियें* । - बारह व्रतोंमें सल्लेखनाको स्थान देनेसें 'प्रतिक' नामकी दूसरी प्रतिमामें उसकी पूर्ति आवश्यक हो जाती है । विना उस गुणकी पूर्तिके अगली प्रतिमाओं में आरोहण नहीं हो सकता और सल्लेखनाकी पूर्ति पर शरीर की - ही समाप्ति हो जाती हैं, फिर अगली प्रतिमाओंका अनुष्ठान कैसे बन सकता है ? अतः सल्लेखनाको शिक्षानत मानकर दूसरी प्रतिमामें रखनेसे तीसरी सामायिकादि प्रतिमाओंका अनुष्टान अशक्य हो जाता "है और वे केवल कथनमात्र रह जाती हैं, यह बड़ा दोष आता है । इस पर विद्वानोंको विचार करना चाहिये । इसी लिये प्रसंग पाकर यहाँ पर यह विकल्प उठाया गया है । संम्भव है कि ऐसे ही किन्हीं कारणोंसे समन्तभद्र, उमास्वाति, सोमदेव, अमितगति और स्वामिकार्तिकेयादि आचार्योंने सल्लेखनाको शिक्षाव्रतोंमें स्थान न दिया हो, अथवा चसुनन्दी आदिकका सल्लेखनाको शिक्षात्रत करार देनेमें कोई दूसरा, ही हेतु हो । उन्हें प्रतिमाओंके विषयका अपने पूर्व गुणोंके साथ विवृद्ध . • " * श्रावकपदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह तिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः ॥ 4 . - रत्नकरण्डके, समन्तभद्रः ।

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