________________
गुंणवत और शिक्षाव्रत प्रतिपादन किया है। इसके सिवाय, आपने सामायिक और प्रोषधो-, पवास नामके दो व्रतोंको, जिन्हें उपर्युक्त सभी ओचार्योंने शिक्षाव्रतोंमें.. रक्खा है, इन व्रतोंकी पंक्तिमेंसे ही कतई निकालं डाला है.। शायद, आपको यह खयाल हुआ हो कि, जब सामायिक' और 'प्रोषधोपवास', नामकी दो प्रतिमाएँ ही अलग हैं तत्र व्रतिक प्रतिमामें इन दोनों कि, रखनेकी क्या जरूरत है और इसी लिये आपको वहाँसे इन व्रतोंके निकालनेकी जरूरत पड़ी हो, अथवा इस निकालनेकी कोई दूसरी ही वजह हो। कुछ भी हो, यहाँ मैं, इस विषयमें, कुछ विशेष विचार उपस्थित करनेकी जरूरत नहीं समझता । परन्तु इतना जरूर कहूँगा, कि वारह : व्रतोंमें-तिक प्रतिमामें-सामायिक और प्रोषधोपवास, शीलरूपसे निर्दिष्ट हैं और अपने अपने नामकी प्रतिमाओंमें वे व्रतरूपसे प्रतिपादित हुए हैं * 1. 'शील'का लक्षण अकलंकदेव और विद्यानन्दने, अपने अपने वार्तिकोंमें 'व्रतपरिरक्षण' किया है। पूज्यपाद भी 'व्रतपरिरक्षणार्थ शील' ऐसा लिखते हैं। जिस प्रकार' परिधियाँ नगरकी रक्षा करती हैं उसी प्रकार 'शील' व्रतोंकी पालना करते हैं, ऐसा श्रीअमृतचन्द्र आचार्यका कहना है । श्वेताम्बराचार्य . श्रीसिद्धसेनगणि और यशोभद्रजी भी अणुव्रतोंकी दृढ़ताके लिये शीलव्रतोंका उपदेश बतलाते हैं । अतः अहिंसादिक व्रतोंकी रक्षा, : * यत्प्राक् सामायिकं शीलं तद्वतं प्रतिमावतः। . . . . ''. यथा तथा प्रोपधोपवासोऽपीत्यत्र युक्तिवाक् , ':
....... ... ... . .सागारधर्मामृते, आशाधर।: * परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि ।
-पुरुषार्थसिद्धयुपायः। 0 प्रतिपन्नस्याणुव्रतस्यागारिणस्तेषामेवाणुव्रतानां दाढ्यांपादनायं शीलोपदेशः।. . : .::,, .. तत्त्वार्थसूत्रटीका ।