Book Title: Jain Acharyo ka Shasan Bhed
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ | अणुव्रत और रात्रिभोजनविरति कविराजमल्ल भी इसी प्रकारके विद्वानोंमें हुए हैं। उन्होंने 'लाटीसंहिता' नामक अपने श्रावकाचारमें 'रात्रिभोजनविरति' को छठी प्रतिमा करार देकर, यद्यपि रात्रिभोजनका सर्वागत्याग उसीमें कराया है परन्तु पहली प्रतिमामें भी उसके एकदेश त्यागका विधान किया हैजिसे आप 'दिग्मात्र' त्याग वतलाते है--और लिखा है कि 'पहली प्रतिमामें रात्रिको अन्नमात्रादि स्थूल भोजनका निषेध है किन्तु जलादिकके पीने और ताम्बूलादिकके खानेका निषेध नहीं है। इनका तथा औषधादिकके लेनेका सर्वथा निषेध छठी प्रतिमामें होता है।' यथाः-- ननु रात्रिभुक्तित्यागो नात्रोद्देश्यस्त्वया कचित् । पष्ठसंज्ञिकविख्यातप्रतिमायामास्ते यतः ।। ४१॥ सत्यं सर्वात्मना तत्र निशाभोजनवर्जन । हेतोः किंवत्र दिग्मात्रं सिद्धं स्वानुभवागमात् ॥ ४२ ॥ अस्ति कश्चिद्विशेषोत्र स्वल्पाभासोऽर्थतो महान् । सातिचारोत्र दिग्मात्रे तत्रातीचारवर्जितः ॥४३॥ निषिद्धमन्नमात्रादिस्थूलभोज्यं व्रते दृशः। न निषिद्धं जलायत्र ताम्बूलाद्यपि वा निशि ॥ ४४ ॥ तत्र ताम्बूलतोयादि निषिद्धं यावदंजसा । प्राणान्तेपि न भोक्तव्यमौपधादि मनीपिणा ॥ ४५ ॥ -द्वितीयः सर्गः। वीरनन्दी आचार्यका श्रावकाचार-विपयक कोई ग्रंथ मुझे उपलब्ध नहीं हुआ। परन्तु चूंकि आपने, रात्रिभोजनके त्यागमें, सिर्फ अन्नकी निवृत्तिसे ही छठे अणुव्रतका होना सूचित किया है इसलिये आप इस - द्वितीयवर्गके ही विद्वान् मालूम होते हैं और संभवतः यही वजह है कि.

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87