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गुणव्रत और शिक्षाव्रत निकाल कर शिक्षाव्रतोंमें दाखिल किया है। तत्वार्थसूत्रके टीकाकारों पूज्यपाद, अकलंकदेव और विद्यानन्दमेंसे किसीने उनके इस कथनपर कोई आपत्ति नहीं की। बल्कि विद्यानन्दने एक वाक्यद्वारा साफ तौरसे सल्लेखनाको अलग दिखलाया है और यह प्रतिपादन किया. है कि 'जिसप्रकार मुनियोंके महाव्रत और शीलवत सम्यक्त्वपूर्वक तथा सल्लेखनान्त होते हैं उसी प्रकार गृहस्थके पंच अणुव्रत और गुणवतशिक्षाव्रतके विभागको लिये हुए, सप्तशीलव्रत भी सम्यक्त्वपूर्वक तथा सल्लेखनान्त समझने चाहियें। अर्थात् , इन व्रतोंसे पहले सम्यक्त्वकी जरूरत है और अन्तमें-मृत्युके संनिकट होनेपर-सल्लेखना, संन्यास अथवा समाधिका विधान होना चाहिये ।' वह वाक्य इस प्रकार है:__ "तेन गृहस्थस्य पंचाणुव्रतानि सप्तशीलानि गुणवतशिक्षात्रतव्यपदेशभांजीति द्वादशदीक्षाभेदाः सम्यक्त्वपूर्वकाः सल्लेखनांताश्च महाव्रततच्छीलवत् ।"
इस वाक्यमें गृहस्थके वारहव्रतोंको 'द्वादश दीक्षाभेद' प्रकट किया है, जिससे उन लोगोंका बहुत कुछ समाधान हो सकता है जो अभी-- तक यह समझे हुए हैं कि श्रावकके वारहवतोंका युगपत् ही ग्रहण होता. है, क्रमशः अथवा व्यस्त रूपसे नहीं । ___ हाँ, श्वेताम्बर टीकाकारों में श्रीसिद्धसेनगणि और यशोभद्रजीने. उमास्वातिके उक्त सूत्रपर कुछ आपत्ति जरूर की है । उन्होंने, दिग्विरतिके बाद देशविरतिके कथनको परमागमके क्रमसे विभिन्न
सूचित करते हुए, एक प्रश्न खड़ा किया है और उसके द्वारा यह विकल्प उठाया है कि, जब परमागममें गुणवतोंका क्रमसे निर्देश करनेके बाद शिक्षाव्रतोंका उपदेश दिया गया है तो फिर सूत्रकार