Book Title: Jain Acharyo ka Shasan Bhed
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 49
________________ - - प्रन्याम इसी मकवाणं अयातिणि र गुणवत और शिक्षाग्रत (१) श्रीकुन्दकुन्दाचार्य, अपने 'चारित्रपहुड' में, इन व्रतोंके. भेदोंका प्रतिपादन इस प्रकारसे करते हैं: दिसविदिसमाण पढमं अणत्यदंडस वजणं विदियं । • भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणन्बया तिणि ॥ २५॥ सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं अतिहीपुजं चउत्य संलेहणा अंते ।। २६ ॥ अर्थात्-१ दिशाविदिशाओंका परिमाण, २ अनर्थदंडका त्याग और ३ भौगोपभोगका परिमाण, ये ही तीन गुणवत हैं। १ सामायिक, २ प्रोपध, ३अतिथिपूजन और ४ अन्तमें सल्लेखना, ये चार शिक्षाबत हैं। 'देवसेन' और 'शिवकोठि' नामके आचार्योंने भी अपने अपने प्रन्यों में इसी मतका प्रतिपादन किया है । यथाः दिसि विदिसिपञ्चक्खाणं अणत्यदंडाण होह परिहारो। भोओपभोयसंखा एएह गुणन्वया.तिण्णि ॥ ३५४॥ देवे थुवह तियाले पव्वे पव्वे सुपोसहोवासं। अतिहीण संविभागो मरणंते कुणइ सल्लिहणं ॥३५५ ॥ -भावसंग्रहे, देवसेनः । (यहाँ 'देवे थुवइ तियाले' (त्रिकालदेववन्दना) से 'सामायिक' का अभिप्राय है। गुणवतानामाचं स्यादिवतं तद् द्वितीयकम् । अनर्थदण्डविरतिस्तृतीयं प्रणिगद्यते ॥१६॥ भोगोपभोगसंख्यान, शिक्षात्रतमिदं भवेत् । सामायिकं प्रोपधोपवासोतिथिपु पूजनम् ॥ १७ ॥ मारणान्तिकसल्लेख इत्येवं तच्चतुष्टयम् ।....१८ ॥ रतमालायां, शिवकोटिः।

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