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अणुव्रत और रात्रिभोजनविरति आजाता है तब तो उसकी भावनामें भी उसका समावेश हो सकता है और यदि मूल अहिंसा अणुव्रतके स्वरूपमें ही रात्रिभोजनका त्याग नहीं बनता-लाजमी नहीं आता-तब फिर उसकी भावनामें ही उसका समावेश कैसे हो सकता है। क्योंकि भावनाएँ व्रतोंकी स्थिरताके लिये कही गई हैं। जो बात मूलमें ही नहीं उसकी फिर स्थिरता ही क्या की जा सकती है ? अतः सबसे पहले हमें अहिंसाणुव्रतके स्वरूपको सामने रखना चाहिये और तब उसपरसे विचार करना चाहिये कि उसकी आलोकितपानभोजन ( देखकर खानापीना) नामकी भावनामें रात्रिभोजनविरतिका अन्तर्भाव होता है या नहीं । अहिंसाणुव्रतका स्वरूप स्वामीसमंतभद्राचार्यने इसप्रकार बतलाया है. संकल्पात्कृतकारितमननायोगत्रयस्य चरसत्वान्। .
न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलवधाद्विरमणं निपुणाः ॥. __इस स्वरूपमें अणुव्रतीके लिये स्थूलरूपसे त्रसजीवोंकी सिर्फ संकल्पी हिंसाके त्यागका विधान किया गया है । आरंभी* और विरोधी हिंसाका वह प्रायः त्यागी नहीं होता। श्रीहेमचंदाचार्य भी अपने योगशास्त्रमें 'निरागस्त्रसजंतूनां हिंसां संकल्पतस्त्यजेत्' इस वाक्यके द्वारा संकल्पसे निरपराधी त्रस जीवोंकी हिंसाके त्यागका विधान करते हैं। रात्रिभोजनमें दिनकी अपेक्षा हिंसाकी अधिक संभावना .जरूर है परन्तु वह उक्त संकल्पी हिंसा नहीं होती जिसके त्यागका व्रती श्रावकके लिये. नियंम किया गया है और • . * गृहवाससेवनरतो मंदकषायप्रवर्तितारंभः।
. आरंभजां स हिंसां शक्नोति न रक्षितुं नियतम् ॥६-७॥ ... . . . . . . ... -उपासकाचारे, अमितगतिः।।