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अणुव्रत और.रात्रिभोजनविरति वृद्धि की जायचे २८ के स्थानमें २९ स्वीकार किये जायें-तो इसमें जैनधर्मके मूल सिद्धान्तोंसे कोई विरोध नहीं आता । मूलोत्तर गुण हमेशा एक ही प्रकारके और एकही संख्यामें नहीं रहा करते। वे समयकी आवश्यकताओं, देशकालकी परिस्थितियों और प्रतिपायों (शिष्यों) की योग्यता आदिके अनुसार बराबर बदला करते हैं उनमें फेरफारकी जरूरत हुआ करती है । महावीर भगवानसे पहले अजितनाथ तीर्थंकरपर्यंत व्रत एक था, क्योंकि वाईस तीर्थंकरोंने 'सामायिक' चारित्रका उपदेश दिया है, 'छेदोपस्थापना' चारित्रका नहीं। छेदोपस्थापनाका उपदेश श्रीपभदेव और महावीर भगवानने दिया है; जैसा कि श्रीवट्टकेराचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है:*बावीसं तित्ययरा सामाइयं संजमं उवदिसंति। छेदोवहावणियं पुन भयवं उसहो य वीरो य ॥७-३२॥
-मूलाचार। सामायिक चारित्रकी अपेक्षा व्रत एक होता है, जिसे अहिंसावत अथवा सर्वसावद्यत्यागवत कहना चाहिये । वही व्रत छेदोपस्थापना चारित्रकी अपेक्षा पंच प्रकारका अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह रूपसे वर्णन किया गया है; जैसा कि श्रीपूज्यपाद आचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है:
"सर्वसावधनिवृत्तिलक्षणसामायिकापेक्षया एकं व्रतं, तदेव छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविधमिहोच्यते ।"
-सर्वार्थसिद्धि। * यह गाथा श्वेताम्बरोंकी 'आवश्यकनियुक्ति में भी, जिसे भद्रबाहु श्रुतकेवलीकी बनाई हुई कहा जाता है, नं० १२४६ पर, साधारणसे पाठ भेदके साथ, पाई जाती है।