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अणुवत और रात्रिभोजनविरति
३९ इन सब विधि-विधानोंका जैनसिद्धान्तों अथवा महावीर भगवानके शासन के साथ कोई विरोध नहीं है-सबका आशय और उद्देश्य सावध कोको छुड़ानेका है-यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक आचार्यने छठे अणुव्रतका विधान करके अथवा मुनियोंके लिये पृथकरूपले एक नये प्रतकी ईजाद करके महावीर भगवानकी आज्ञाका उलंबन किया अथवा उन्मार्ग फैलाया है । ऐसा कहना भूल होगा। महावीर भगपानने लावधकमाके त्यागका एक नुसखा (ओपधिकल्प ) वतलाया था, जो उस समय उनके शिष्योंकी प्रकृतिके बहुत अनुकूल था। उनके इस बतलानेका यह आशय नहीं था कि दूसरे समयोंमें-शिष्योंकी प्रकृति बदल जानपर भी-~-उसमें कुछ फेरफार न किया जाय । इसीलिये उसमें अविरोषदृष्टिले फेरफार किया गया है और अब भी उसी दृष्टिले लिया जा सकता है। आज यदि कोई महात्मा, वर्तमान देशकालकी परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार अणुव्रतोंकी संख्यामें एक नये व्रतकी वृद्धि करना चाहे-अर्थात् , (उदाहरणके तौर पर, 'स्वदेशवस्तुल्यवहार' नामका सातवाँ अणुवत स्थापित करे, तो वह खुशीले ऐसा कर सकता है। उसमें भी कोई आपत्ति किये जानेकी जरूरत नहीं है। क्योंकि अहिंसावतकी रक्षाके लिय ('अहिंसावतरक्षार्थ' इति सामदेवः) अथवा पाँचों प्रतोंकी रक्षाके लिये (तसिं चेव वदाणं रक्खी' इति बढकरः) जिस प्रकार रात्रिभोजनविरति 'का विधान किया गया है उसी प्रकार अपरिप्रह-परिमितपरिग्रह-तकी रक्षाके लिये अथवा अहिंसादिक पाँचों ही व्रतोंकी रक्षाफ लिये 'खदेशवस्तुन्यवहार ' नामका व्रत बद्भुतही उपयोगी जान पड़ता है। आजकल इसकी बड़ी जरूरत भी है-विदेशी वस्तुओं के प्रबल प्रचारके कारण मनुष्योंका नार्को दम है, उनमें इतनी जरूरतें बढ़ गई हैं और इतनी विलासप्रियता