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जैनाचार्याका शासनभेद __ इससे स्पष्ट है कि जब महावीर भगवानसे पहले अजितनाथ तीर्धकरपर्यंत व्रतोंमें सत्यव्रतादिककी कल्पना नहीं थी, अविभक्तरूपसे एक
अहिंसावत माना जाता था-सिर्फ अहिंसाको धर्म और हिंसाको पाप गिना जाता था-तव उस वक्त मुनियोंके ये अहाईस मूल गुण भी नहीं थे और न श्रावकोंके वर्तमान बारह व्रत बन सकते हैं-उनकी संख्या भी कुछ और ही थी। यह सब भेदकल्पना महावीर भगवानके समयसे हुई है । संभव है कि महावीर भगवानको अपने समयमें मुनियोंको रात्रिभोजनके त्यागकी पृथकरूपसे उपदेश देनेकी जरूरत न पड़ी हो, उस वक्त आलोकितपानभोजन नामकी भावना आदिसे ही काम चल जाता हो और यह जरूरत पीछेके कुछ आचायाँको द्वादशवर्षीय दुष्कालके समयसे पैदा हुई हो, जब कि बहुतसे मुनि रात्रिको भोजन करने लगे थे और शायद 'परकृतप्रदीप' और 'दिवानीत' आदि हेतुओंसे अपने पक्षका समर्थन किया करते थे।
और इस लिये दुरदर्शी आचार्योंने उस वक्त मुनियोंके लिये महाव्रतोंके साथ-उनके अनन्तर ही-रात्रिभोजनविरतिका एक पृथक व्रतरूपसे विधान करना आवश्यक समझा । वही विधान अबतक चला आता है। ऐसी ही हालत छठे अणुव्रतकी जान पड़ती है। उसे भी किसी समयके आचार्योंने जरूरी समझ कर उसका विधान किया है। परन्तु
१ भोजन हम दीपकके प्रकाशमें अच्छी तरहसे देख भालकर करते हैं, और दीपकको दूसरेने स्वयं जलाया है इसलिये हमें उसका आरंभादिक दोष भी नहीं लगता। . २ भोजनके लिये रात्रिको विहार करने आदिका जो दोष आता था सो ठीक, परन्तु हम दिनमें विधिपूर्वक गोचरीके द्वारा भोजन ले आते हैं और रात्रिको परकृत प्रदीपके प्रकाशमें अच्छी तरह देख भालकर खा लेते हैं, इसलिये हमें कोई दोष नहीं लगता।