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अणुव्रत और रात्रिभोजनविरति
उनसे पहले भी कुछ आचार्योद्वारा यह अणुव्रत माना जाता था; जैसा कि, इस लेखमें, इसके बाद ही दिखलाया जायगा और इसलिये कुमारसेनके द्वारा इस व्रतके विधानका सिर्फ इतना ही आशय लेना चाहिये कि उन्होंने इसे अपने सिद्धान्तोंमें स्वीकार किया था।
ह-श्रीपूज्यपाद स्वामीने, अपने ' सर्वार्थसिद्धि' नामक ग्रंथके सातवें अध्यायमें, प्रथम सूत्रकी व्याख्या करते हुए, 'रात्रिभोजनविरमण' नामके छठे अणुव्रतका उल्लेख इस प्रकारसे किया है:
"ननु च पष्ठमणुव्रतमस्ति रात्रिभोजनविरमणं तदिहोपसं-- ख्यातव्यं । न भावनास्वन्तर्भावात् । अहिंसावतभावना हि वक्ष्यते। तत्र आलोकितपानभोजनभावना कार्येति ।" ___ इससे मालूम होता है कि श्रीपूज्यपादके समयमें, जिनका अस्तित्वकाल विक्रमकी छठी शताब्दीका प्रायः पूर्वार्ध* माना जाता है, रात्रि-. भोजनविरमण नामका छठा अणुव्रत प्रचलित था।
परन्तु चूंकि उमास्वाति आचार्यने तत्वार्थसूत्रमें इस छठे अणुव्रतका विधान नहीं किया इसलिये, आचार्य पूज्यपादने अपने प्रथमें इसका एक विकल्प उठाकर अर्थात्, यह प्रश्न खड़ा करके कि 'जब रात्रिभोजनविरमण नामका छठा अणुव्रत भी है तब यहाँ व्रतोंके प्रतिपादक इस सूत्रमें उसका भी सम्मेलन और परिगणन __ * देवसेनाचार्यने 'दर्शनसार' ग्रंयमें लिखा है कि श्रीपूज्यपादके शिष्य वज्रनन्दीके द्वारा वि० सं० ५२६ में द्राविसंघकी उत्पत्ति हुई है। पूज्यपादस्वामी गंगराजा 'दुविनीत, के समयमें हुए हैं। दुर्विनीत राजा उनका शिष्य था, जिसका राज्यकाल ई० सन् ४८२ से ५२२ तक कहा जाता है। इससे पूज्यपादका रक्त समय प्रायः ठीक मालूम होता है ।