Book Title: Jain Acharyo ka Shasan Bhed
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 34
________________ २८ जैनाचार्योंका शासनभेद आपके और चामुंडरायके छठे अणुव्रतके स्वरूपकथनमें परस्पर भेद 'पाया जाता है। यदि ऐसा नहीं है-अर्थात्, वीरनन्दी प्रथम वर्गक विद्वानोंमें शामिल हैं तो कहना होगा कि आपके उपर्युलिखित पद्यमें 'अन्नात् ' पद उपलक्षण है और इसलिये उसकी निवृत्तिसे छठे अणुव्रतमें रात्रिके समय अन्न, पान खाद्यादिक सभी प्रकारके आहारका त्याग कराया गया है। ऐसी हालतमें फिर महाव्रत और अणुव्रतके त्यागमें कोई विशेषता नहीं रहेगी। परंतु विशेषता रहो अथवा मत रहो, और वीरनन्दी प्रथम वर्गके विद्वान् हों अथवा दूसरे वर्गके, पर इसमें सन्देह नहीं कि ऊपरके इन सब अवतरणोंसे रात्रिभोजन-विषयक आचा-ौँका शासनभेद बहुत कुछ व्यक्त हो जाता है और साथ ही छठी प्रतिमाका नाम और स्वरूपसंबन्धी कुछ मतभेद भी 'पाठकोंके सामने आ जाता है । अस्तु । ___ अब मैं फिर अपने उसी छठे अणुव्रतपर आता हूँ, और देखता हूँ कि उसका कथन कितना पुराना है घ-विक्रमकी १० वीं शताब्दीके विद्वान् श्रीदेवसेन आचार्य, अपने 'दर्शनसार' नामक ग्रंथमें, कुमारसेन नामके एक मुनिके द्वारा विक्रमराजाकी मृत्युसे ७५३ वर्षवाद काष्ठासंघकी उत्पत्तिका वर्णन करते हुए, लिखते हैं कि कुमारसेनने छठे अणुव्रतका (छठं च अणुव्वदं .णाम) विधान किया है। इससे मालूम होता है कि रात्रिभोजनत्याग · नामका छठा अणुव्रत आजसे बारहसौ वर्षसे भी अधिक समय पहले माना जाता था। परंतु इस कथनसे. किसीको यह नहीं समझ लेना चाहिये कि कुमारसेन नामके आचार्यने ही इस अणुव्रतकी ईजाद की है-उन्होंने ही सबसे पहले इसका उपदेश दिया है । ऐसा नहीं है। .

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