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अणुव्रत और रात्रिभोजनविरति । वास्ते मुनियोंका रात्रिको विहारादिक नहीं बन सकता, क्योंकि आचारशास्त्रका ऐसा उपदेश है:
"ज्ञानाऽऽदित्यस्वेंद्रियप्रकाशपरीक्षितमार्गेण । मात्रपूर्वा पेक्षी देशकाले पर्यव्य यतिः भिक्षां शुद्धामुपादीयते इत्याचारोपदेशः।" __ आचारशास्त्रकी यह विधि रात्रिको नहीं बन सकती-इसके लिये आदित्य (सूर्य) के प्रकाशकी खास जरूरत है। अतः परकृतप्रदीपादिके कारण आरंभदोप न होते हुए भी, विहारादिक न बन सकनेसे, मुनियोंके रात्रिको भोजन नहीं बनता। इसी तरहपर आगे और भी, दिनको भोजन लाकर उसे रात्रिको खाने आदिके विकल्प उठाए गये हैं
और उनका फिर मुनियोंके सम्बन्धमें ही परिहार किया गया है, जिन सबसे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि मुनिधर्मको लक्ष्य करके ही रात्रिभोजनविरमणका आलोकितपानभोजन नामकी भावनामें अन्तर्भाव किया गया है। श्रावकधर्म अथवा उक्त छठे अणुव्रतको लक्ष्य करके नहीं। वास्तवमें हिंसादिक व्रतोंकी पाँच पाँच भावनाएँ भी प्रायः मुनियोंको-महाव्रतियोंको---लक्ष्य करके ही कही गई . हैं; जैसा कि शास्त्रोंमें दिये हुए ईर्यासमिति, भैक्ष्यशुद्धि, शून्यागारावास आदि उनके नामों तथा स्वरूपसे प्रकट है और जिनके विषयमें यहाँ विशेष लिखनेकी जरूरत नहीं है। महाव्रतोंकी अस्थिरतामें मुनियोंके एक भी उत्तरगुण नहीं बन सकता, अतः व्रतोंकी स्थिरता संपादन करनेके लिये ही मुनियों के वास्ते इन सब भावनाओंका खास तौरसे विधान किया गया है, जैसा कि 'श्लोकवार्तिक' में श्रीविद्यानंद आचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है