________________
२४
जैनाचार्योंका शासनभेद तत्स्थैर्यार्थ विधातव्या भावना पंच पंच तु ।
तदस्थैर्य यतीनां हि संभाव्यो नोत्तरो गुणः । अणुव्रती श्रावकके लिये इन भावनाओंमेंसे आलोकितपानभोजन नामकी भावनाका प्रायः इतना ही आशय हो सकता है कि, मोटे रूपसे अच्छी तरह देख भालकर भोजनपान किया जाय--वैसे ही विना देखे भाले अन्धेरे आदिमें अनापशनाप भोजन न किया जाय । इससे अधिक, रात्रिभोजनके त्यागका अर्थ उससे नहीं लिया जा सकता। उसके लिये जुदा प्रतिज्ञा करनी होती है। यह भावना है, इसे व्रत अथवा प्रतिज्ञा नहीं कह सकते । व्रत कहते हैं 'अभिसंधिकृत नियम' को-अर्थात , यह काम मुझे करना है अथवा यह काम में नहीं करूँगा, इस प्रकारके नियमविशेषको; और भावना नाम है 'पुनः पुनः संचिन्तन और समीहन' का। आलोकितपानभोजन नामकी भावनामें इस प्रकारका चिन्तन और समीहन किया जाता है कि 'मेरे अहिंसाव्रतकी शुद्धिके लिये देख भालकर भोजन हुआ करे ।' इससे पाठक समझ सकते हैं कि यह चिन्तन और समीहन कहाँ तक उस रात्रिभोजनविरति नामके व्रत अथवा अणुव्रतकी कोटिमें आता है, जिसमें इस प्रकारका नियम किया जाता है कि मैं रात्रिको अमुक अमुक प्रकारके आहारका सेवन नहीं करूँगा । अस्तु; यहाँ मैं अपने पाठकोंपरं इतना और प्रकट किये देता हूं कि श्रीविद्यानंद आचार्यने, अपने 'श्लोकवार्तिक' के इसी प्रकरणमें, छठे अणुव्रतका उल्लेख नहीं किया है। बल्कि रात्रिभोजनविरतिको अहिंसादिक पाँचों व्रतोंके अनन्तर ही अस्तित्व रखनेवाला एक पृथक व्रत सूचित करते हुए उसे उक्त प्रकारके प्रश्नों तथा विकल्पोंके साथ, आलोकितपानभोजन नामकी भावनामें अंतर्भूत किया है । जैसा कि उनके निम्न वाक्योंसे प्रकट है: