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अणुवत और रात्रिभोजनविरति
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२ अमितगति आचार्यने भी, अपने उपासकाचारमें, छठी प्रतिमाको 'दिवामैथुनत्याग' वर्णन किया है और वे रात्रिभोजनत्यागका विधान व्रतोंके उपदेशते भी पहले करते हैं, जिससे मालूम होता है कि वे पाक्षिक तथा दर्शनिक श्रावकके लिये उसका नियम करते हैं; जैसा कि पहले अष्टमूलगुण-संबंधी लेखमें प्रकट किया गया है। ___३ पं० वामदेव भी, अपने 'भावसंग्रह' में, दर्शनिक श्रावक अर्थात् पहली प्रतिमाधारकके लिये रात्रिभोजनका त्याग आवश्यक बतलाते हैं ययाः
दर्शनिकः प्रकुर्वीत रात्रिभोजनवर्जनम् । ४ पं० आशाधरजीका भी मत छठी प्रतिमाके विपयमें 'दिवामैथुनत्याग' का है। उन्होंने अपने सागारधर्मामृतमें रात्रिभोजनके त्यागका विधान पाक्षिक श्रावकसे प्रारंभ किया है और उसे क्रमसे बढ़ाया है। पाक्षिक श्रावकसे सामान्यतया भोजनका-अन्नका-त्याग कराकर दर्शनिक श्रावकके त्यागमें कुछ विशेषता की है उसके लिये दिनके प्रथम मुहूर्त और अन्तिम मुहूर्तमें भी भोजनका निषेध किया है, और साथ ही, रोगनिवृत्ति तथा स्वास्थ्यरक्षाके लिये रात्रिको जलफल-घृत-दुग्वादिकका सेवन भी दूपित ठहराया है-और अन्तमें फिर व्रतिक श्रावकसे चारों प्रकारके भोजनका सदाके लिये त्याग कराकर इस रात्रिभोजनके कथनको पूरा किया है।
५ श्रीचामुंडराय भी इसी प्रकारके विद्वानों में हुए हैं। उन्होंने भी चारित्रसारमें छठी प्रतिमा 'दिवामैथुनत्याग' स्थापित की है। और इसलिये वे दूसरी प्रतिमामें ही पूरी तौरसे रात्रिभोजनके त्यागका. विधान करते हैं.। उनके वे विधिवाक्य ऊपर उद्धृत किये जा चुके हैं।