Book Title: Jain Acharyo ka Shasan Bhed
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 29
________________ अणुव्रत और रात्रिभोजनविरति २३: ख-व्रतत्राणाय कर्तव्यं रात्रिभोजनवर्जनम् । सर्वथानानिवृत्तेस्तत्प्रोक्तं पष्ठमणुव्रतम् ॥ ५-७०॥, -आचारसारः। यह वाक्य श्रीवीरनन्दी आचार्यका है, जो आजसे आठसौ वर्ष पहले, विक्रमकी १२ वीं शताब्दीमें, हो गये हैं। इसमें कहा गया है. कि ' (मुनिको ) अहिंसादिक व्रतोंकी रक्षाके लिये सर्वथा रात्रिभोजनका त्याग करना चाहिये और अन्नकी निवृत्तिसे वह रात्रिभोजनका त्याग छठा अणुव्रत कहा जाता है, अथवा कहा गया है।' ग-"रात्रावनपानखाद्यलेह्येभ्यश्चतुभ्यः सत्वानुकंपया विरमणं ' रात्रिभोजनविरमणं षष्ठमणुव्रतम् ।" "वधादसत्याचौयांच्चकामादग्रंथानिवर्त्तनम् । पंचधाणुव्रतं राज्यभुक्तिः षष्ठमणुव्रतम् ॥" -चारित्रसारः। ये वचन श्रीनेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके शिष्य चामुण्डरायके हैं, जो आजसे लगभग एक हजार वर्ष पहले, विक्रमकी ११ वीं शताब्दीके शुरूमें, हो गये हैं । इन वचनोंद्वारा स्पष्टरूपसे यह बतलाया गया है कि रात्रिभोजनत्यागको छठा अणुव्रत कहते हैं और यह उन पंच प्रकारके अणुव्रतोंसे भिन्न है जो हिंसाविरति आदि नामोंसे कहे गये हैं। यहाँपर इतना विशेप और है कि वीरनन्दी आचार्यने तो अन्नसे निवृत्त होनेको छठा अणुव्रत बतलाया है परंतु चामुंडराय अन्न, पान, खाद्य और लेह्य, ऐसे चारों प्रकारके आहारके त्यागको छठा अणुव्रत प्रतिपादन करते हैं। दोनों विद्वानोंके कथनोंमें यह परस्पर भेद क्यों ? इसमें जरूर कोई गुप्त रहस्य जान पड़ता है। जब महाव्रती मुनियोंको भी रात्रि

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